Wednesday, February 18, 2015

एक त्रासदी का मानवीय पहलू

पिछले छह हफ्तों से लेखक राजनेता शशि थरूर उस अजीब से चलन के शिकार हैं, जिसे मीडिया ट्रायल का नाम दिया जाता है। जब जिंदगी बुरा मोड़ लेती है तो मीडिया निष्ठुर भी हो सकता है। एक दिन तो यह सेलेब्रिटी को आसमान की बुलंदियों पर ले जाने में खुशी महसूस करता है और उतनी ही खुशी से यह अगले ही दिन उन्हें धड़ाम से नीचे लाकर पटक देता है। थरूर की पत्नी की त्रासदीपूर्ण मौत को एक साल से कुछ ज्यादा अरसा हो गया है। 1 जनवरी 2014 को सुनंदा ने अपने पति पर पाकिस्तानी पत्रकार के साथ अंतरंग संबंधों का आरोप लगाया था। जल्द ही दिल्ली के पांच सितारा होटल में उनकी मौत हो गई। कहा गया कि यह खुदकुशी थी। परंतु पिछले महीने पुलिस ने हत्या का मामला दायर किया और दिल्ली पुलिस के प्रमुख बीएस बस्सी ने कहा कि सुनंदा पुष्कर की मौत जहर से हुई।

2010 में विवाह के बाद से थरूर पति-पत्नी ‘ड्रीम कपल’ माने जाते थे। वे आक्रामक मीडिया के फोकस में अपनी ईर्ष्याजनक खुशनुमा जिंदगी जी रहे थे। सुनंदा आकर्षक थीं और शशि अच्छे वक्ता, करिश्माई अंदाज और बौद्धिक स्तर पर प्रेरक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति हैं। परंपरागत भारतीय राजनेता की छवि में यह स्वागतयोग्य परिवर्तन था। आज दिल्ली पुलिस हत्या के मामले में शशि थरूर से पूछताछ कर रही है।

मानव की प्रवृत्ति त्रासदी के गहरे कारणों को तलाश करने और उन्हें समझने की कोशिश करने की बजाय पक्ष लेने की होती है। ‘किसने किया’ इस बारे में अटकलें लगाना निरर्थक है। वह पुलिस का काम है। अारोप लगाने की बजाय मानवीय तृष्णा (काम) की प्रकृति, इसकी अस्पष्ट सीमाएं और क्यों यह हम सबको एेसे संकट में डाल देती है, इसे समझना शायद उपयोगी होगा। खुद को त्रासदी के शिकार व्यक्ति की जगह रखकर शुरुआत करना ठीक होगा। ईसाई धर्म वाले पश्चिम में सृष्टि निर्मिति प्रकाश से शुरू हुई। बाइबल के अनुसार ईश्वर ने कहा- ‘प्रकाश हो जाए।’ प्राचीन भारतीय परंपरा कहती है कि प्रारंभ में तृष्णा (काम) थी। ऋग्वेद के अनुसार उस ‘एक’ के मन में ‘काम’ वह पहला बीज था, जिसकी ‘विशाल तृष्णा’ संसार की उत्पत्ति का कारण बनी। इस तरह ब्रह्मांड का जन्म आदिम जैविक ऊर्जा से हुआ। परंतु वह ‘एक’ को अकेलापन महसूस हुआ और उसने अपने शरीर को दो में विभाजित किया, जिससे स्त्री-पुरुष अस्तित्व में आए। उपनिषद में वर्णित यह आदिम विभाजन इशारा करता है कि मानव की मूल स्थिति अकेलेपन की है। हम दुनिया में अकेले आए थे और अकेले ही जाएंगे। अकेलापन दूर करने के लिए आदिम पुरुष ने आदिम स्री से संयोग किया और मानव जाति का प्रादुर्भाव हुआ। ‘काम’ की शारिरिक अंतरंगता हमारी एकाकीपन की भावनाअों पर काबू पाने में मददगार होती है।

चूंकि काम ही सबकुछ है- जीवन का स्रोत, क्रिया का मूल और सारी गतिविधियों का कारण, हमारे प्राचीन ऋषियों ने इसे ‘त्रिवर्ग’ में प्रतिष्ठित किया। जीवन के तीन लक्ष्य। इसके बाद भी भारतीय काम को लेकर दुविधा में ही रहे। वजह यह थी कि तृष्णा अंधी, उन्मत्त और इतनी आवेशयुक्त होती है कि उसे काबू में करना कठिन होता है। धोखाधड़ी, विश्वासघात, ईर्ष्या और अपराधबोध इसके चारों तरफ मंडराते रहते हैं। इस मामले में सुनंदा पुष्कर की ईर्ष्या के कारण यह त्रासदी हुई।

अपने मिश्रित स्वभाव के कारण ‘काम’ के अपने आशावादी और निराशावादी रहे हैं। आशावादी काम के दूसरे अर्थ ‘सुख’ पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे मानते हैं कि हमारे अल्प और रूखे जीवन में किसी प्रकार के सुख की अपेक्षा करने में कुछ गलत नहीं है। इसी विचार ने ‘कामसूत्र’ जैसी रचना, उद्‌दीपक कलाओं और प्रेम-काव्य को जन्म दिया, जो गुप्त साम्राज्य के दरबारों में खूब फले-फूले। निराशावादी प्राथमिक रूप से तपस्वी संन्यासी थे, जिनके लिए तृष्णा उनके आध्यात्मिक लक्ष्य में बाधक थी। भ्रम में पड़े संसारी लोग इन दो अतियों में मंडराते रहते और इनके उत्तर धर्म ग्रंथों में खोजते हैं। धर्मशास्त्रों ने काम के सकारात्मक गुणों को स्वीकार किया, लेकिन साथ ही इसे एकल विवाह तक सीमित कर दिया, लेिकन स्त्री-पुरुषों ने एकल विवाह के अतिक्रमण करने के तरीके खोज लिए, जिससे अवैध प्रेम का उदय हुआ।

महाकाव्यों के कवियों ने काम और धर्म में अंतर्निहित विरोधाभास के कारण इसमें निहित त्रासदी की आशंका को देख लिया था। यदि धर्म दूसरों के प्रति हमारा कर्तव्य है तो काम स्वयं के प्रति कर्तव्य है। महाकाव्यों में अामतौर पर धर्म, काम को मात दे देता है, क्योंकि हम यह मानते हैं कि अपने आनंद के लिए दूसरों को आहत करना गलत है। पुरुष सत्ता और यौन संबंधों में असमानता के कारण (सुनंदा जैसी) महिला के लिए त्रासदी की ज्यादा संभावना है। महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण पुरुष सत्ता का सबसे जाना-पहचाना प्रदर्शन है।

पुष्कर-थरूर मामले के पीछे नैतिकता की कहानी है। केवल थरूर को ही अपनी अंतरात्मा में उनके विवाह में काम धर्म के अपरिहार्य संघर्ष और जिन सीमाओं का उल्लंघन हुआ उनका सच मालूम होगा। खुद के प्रति कर्तव्य और दूसरों के प्रति कर्तव्य के बीच राह निकालना आसान नहीं है। आप चाहे शारिरिक रूप से इसका उल्लंघन भी करें, हममें से कई दिल ही दिल में तो ऐसा करते हैं।

मशहूर शख्सियतों के ऐसे सेक्स स्कैंडल मीडिया के लिए बिन मांगी मुराद पूरी होने जैसा है, लेकिन यह घटना इससे कहीं आगे मनुष्य के गिरते नैतिक स्तर की ओर इशारा करती है। ‘काम’ केवल सृजन का कारक और परिणाम ही नहीं है, यह हर अच्छे आैर बुरे कर्म की जड़ में है। एक ओर यह प्रेम, प्रसन्नता और सृजन का कारण है तो ईर्ष्या, क्रोध और हिंसा के पीछे भी यही है। क्या इन दोनों पहलुअों को अलग नहीं किया जा सकता? क्या दर्द के बिना खुशी मिलना संभव है? क्या हिंसा के बिना सृजन हो सकता है? इस कहानी में हमारे युवाओं पर मध्यवर्गीय नैतिकताएं थोपने के लिए हमेशा तैयार हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए राजनीतिक संदेश भी है। वे 19वीं सदी में विक्टोरियाकालीन इंग्लैंड के ईसाई मिशनरियों जैसा बर्ताव करते हैं। वे कामेच्छा की अनुमति नहीं देते या इसे पाप बताते हैं। इससे आम इंसान खुद को दोषी समझने लगता है। वे याद रखें कि हमारी शास्त्रीय परंपराओं में काम के सृजनात्मक पहलुओं को मान्यता हासिल है। विक्टोरियाइयों ने काम संबंधी इच्छाओं के लिए पाखंड का सहारा लिया, जबकि प्राचीन भारतीय इसके बारे में सहज रहे। आज इसका उल्टा हो रहा है। पश्चिमी समाज जहां इसके प्रति सहज और आधुनिक रवैया अपना चुका है, दक्षिणपंथी हिंदू समाज वेलेंटाइन डे जैसे आयोजनों का विरोध कर ज्यादा पाखंडी और असहनशील बनता जा रहा है।

2 comments:

Unknown said...

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Unknown said...

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