एक समय था जब मैं विश्वास करता था कि मैं एक वैश्विक नागरिक हूं और इस पर गर्व अनुभव करता था कि घास की एक पत्ती बहुत कुछ दूसरी पत्ती की तरह ही होती है। लेकिन अब मैं पाता हूं कि इस धरती पर घास की प्रत्येक पत्ती का अपना एक विशिष्ट स्थान है, जहां से वह अपना जीवन और ताकत पाती है। ऐसे ही किसी भी व्यक्ति की जड़ उस जमीन में होती है जहां से वह अपने जीवन और उससे संबंधित धारणा-विश्वास को अर्जित करता है। जब कोई अपने अतीत की तलाश करता है तो उन जड़ों को मजबूत करने में मदद मिलती है और खुद में आत्मविश्वास आता है। इतिहास को भूलने का मतलब है खुद अपने आपको भुलाने का खतरा। अपनी इस धारणा के तहत ही मैंने कुछ वषरें पूर्व संस्कृत को पढ़ना आरंभ किया था। अपने कॉलेज के दिनों से थोड़ी बहुत संस्कृत की जानकारी मुझे थी, लेकिन अब मैं महाभारत को पढ़ना चाहता था। इसके पीछे मेरा कोई धार्मिक अथवा राजनीतिक उद्देश्य नहीं था, बल्कि यह एक साहित्यिक लगाव था। इस पुस्तक को पूरी सजगता के साथ मैं अपने वर्तमान के लिए पढ़ना चाहता था जो हमारे जीवन को अधिक अर्थपूर्ण बनाता है। मैंने एक पंडित अथवा शास्त्री की तलाश की, लेकिन कोई भी मेरी इस जिज्ञासा को साझा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। इस प्रकार मुझे इसके लिए शिकागो यूनिवर्सिटी की ओर रुख करना पड़ा। मुझे संस्कृत पढ़ने के लिए इसलिए विदेश का रुख करना पड़ा, क्योंकि भारत में प्राय: यह एक कटु अनुभव साबित होता है। हालांकि हमारे यहां दर्जनों की संख्या में संस्कृत विश्वविद्यालय हैं, बावजूद इसके हमारे प्रतिभाशाली छात्र संस्कृत अध्यापक अथवा विद्वान नहीं बनना चाहते हैं।
दरअसल मध्य वर्ग इस विषय की पढ़ाई करके नौकरी को लेकर खुद को असुरक्षित महसूस करता है। इसका एक कारण यह भी है कि संस्कृत विषय को खुले तौर पर, जिज्ञासु रूप में और विश्लेषणात्मक मानसिकता से नहीं पढ़ाया जाता। आज संस्कृत के विद्वानों में आजादी के पूर्व की पीढ़ी का कोई ऐसा उत्ताराधिकारी नहीं है जो इस विषय का विशिष्ट ज्ञान रखता हो और वह अंतरराष्ट्रीय जिज्ञासुओं के लिए कुछ लिखने-बताने की क्षमता रखता हो। प्राचीन ज्ञान की महान परंपरा भी अब खतरे में पड़ती दिख रही है।
वर्तमान विवाद में हमारे स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा को लेकर कोई बहस नहीं हो रही है, जो अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य यह नहीं है कि किसी भाषा को पढ़ाया जाए अथवा कुछ तथ्यों को रटाया जाए, बल्कि इसका उद्देश्य विचार की क्षमता को बढ़ाना, प्रश्न करना, विषयों की व्याख्या करना और हमारी बोध क्षमताओं को विकसित करना है। इसका दूसरा उद्देश्य प्रेरणा भरना और युवाओं में मूल्यों का विकास है। केवल एक लगनशील व्यक्ति ही कुछ भी हासिल करने की क्षमता रखता है। ऐसा व्यक्ति ही अपनी पूर्ण मानवीय क्षमताओं को समझ सकता है और उन्हें हासिल कर सकता है। इन दोनों ही लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें लगनशील अध्यापकों की जरूरत है और यही कमी भारतीय शिक्षा की समस्याओं की मूल जड़ है। तमाम अभिभावकों और छात्रों का मानना है कि शिक्षा केवल जीने का एक जरिया है, जबकि वास्तविकता यह है कि यह हमारे जीवन को बनाती है अथवा उसे आकार देती है। निश्चित ही बाद में शिक्षा हमारे कॅरियर को भी बनाती है, लेकिन शुरुआती शिक्षा हममें खुद अपने बारे में विचार करने, कल्पना करने और सपने देखने का आत्मविश्वास भरती है। संस्कृत की उपयुक्त शिक्षा हममें आत्मबोध और मानवीयता की भावना का विकास करती है, जैसा कि लैटिन और ग्रीक की पढ़ाई ने पीढ़ी दर पीढ़ी यूरोपीय लोगों के लिए किया है। वे अपनी जड़ों को पुराने रोम और यूनान में पाते हैं। यह उन लोगों के लिए एक उत्तर है जो पूछते हैं कि आखिर क्यों हम संस्कृत जैसी एक कठिन भाषा की पढ़ाई पर खर्च करें, जबकि हम इकोनामिक्स और कॉमर्स जैसे विषयों की पढ़ाई से अपने जीवन की संभावनाओं को बेहतर बना सकते हैं? वास्तव में संस्कृत भी यह काम कर सकती है और किसी के लिए भी अवसरों को बढ़ा सकती है। इस भाषा के व्याकरण नियमों को सीखने के लिए की गई कठिन मेहनत हमें अपने विचारों को गढ़ने और उन्हें अभिव्यक्त करने की क्षमता दे सकती है। स्कूलों में त्रिभाषा फार्मूले के तहत संस्कृत का अध्ययन विफल रहा। बेहतर अध्यापकों की कमी और खराब पाठ्यक्रम के कारण यह युवाओं का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाई। पौराणिक कामिक बुक्स जैसे कि अमर चित्रकथा और संस्कृत में टीवी कार्टूनों के माध्यम से बच्चों में संस्कृत के प्रति रुचि जगाई जा सकती है। संस्कृत को लेकर मीडिया में चल रही बहस के मुताबिक स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा अनिवार्य करना गलत है। संस्कृत को रटाने और इसे अनिवार्य बनाने के बजाय इसकी बेहतर शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए।
वर्तमान बहस में दोनों ही पक्षों में गंभीरता का अभाव दिखता है, जो केवल अज्ञानता और उन्माद पर आधारित हैं। हिंदुत्ववादियों और सेक्युलरवादियों दोनों को ही समझना चाहिए कि आखिर क्यों आधुनिक युवा संस्कृत से दूर हैं? प्राचीन भारत में हवाई जहाज, स्टेम सेल शोध और प्लास्टिक सर्जरी के आडंबरपूर्ण दावों के कारण संस्कृत की वास्तविक उपलब्धियों और इसकी विश्वसनीयता की उपेक्षा हुई है। उदाहरण के लिए गणितीय दशमलव पद्धति को लिया जा सकता है। हिंदुत्ववादी पक्ष में खुलेपन का अभाव है, जबकि हमारे पूर्वज साहित्य, दर्शन, नाट्य रचना, विज्ञान और गणित को लेकर बहुत ही रचनात्मक और खुले विचारों वाले थे। राष्ट्रवादियों के इन नारों कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है अथवा भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाना चाहिए, ने लोगों को निराश किया है, क्योंकि ऐसा करके भारत को पाकिस्तान के साथ खड़ा किया जा रहा है। दूसरी तरफ वामपंथी चाहे वे मार्क्सवादी हों, नारीवादी हों या पर्यावरणवादी, भी इतिहास को वर्ग, जाति और लैंगिक संघर्ष के संदर्भ में देखने के दोषी हैं। वे उत्तर उपनिवेशवादी इतिहास को औपनिवेशिक दमन के नजरिये से देखते हैं। 18वीं और 19वीं शताब्दी में संस्कृत के प्रति पश्चिमी विद्वानों का योगदान अमूल्य है। उन्होंने ही प्राचीन पांडुलिपियों के गूढ़ रहस्यों को बताया और अतीत के दरवाजों को खोला।
हमें भारत में संस्कृत के भविष्य की परवाह इसलिए करनी चाहिए ताकि हमारे बच्चे अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें। इससे कुछ सर्वाधिक आधारभूत प्रश्नों का जवाब हासिल किया जा सकता है जैसे कि जीवन का क्या अर्थ है? इतिहास के ज्ञान से हम अधिक परिपक्व और आत्मविश्वासी व्यक्ति बनते हैं। यदि हम पिछले 3000 वर्षों के ब्यौरों को पढ़ने की योग्यता खो देंगे तो मानव जीवन के लिए जरूरी कुछ अनिवार्य और आधारभूत चीजों को भी खो देंगे। संस्कृत को पुनर्जीवित करते समय हमें अनिवार्य रूप से इसे धर्म से अलग करना चाहिए। यह राजनीतिक कार्यक्रम न होकर, सभी चिंतनशील भारतीयों की चिंता होनी चाहिए। संस्कृत को पुनर्जीवित करने को लेकर ताजा विवाद अच्छी बात होगी यदि भारत में संस्कृत को पढ़ाने और इसे सीखने की गुणवत्ता में इजाफा हो।
दरअसल मध्य वर्ग इस विषय की पढ़ाई करके नौकरी को लेकर खुद को असुरक्षित महसूस करता है। इसका एक कारण यह भी है कि संस्कृत विषय को खुले तौर पर, जिज्ञासु रूप में और विश्लेषणात्मक मानसिकता से नहीं पढ़ाया जाता। आज संस्कृत के विद्वानों में आजादी के पूर्व की पीढ़ी का कोई ऐसा उत्ताराधिकारी नहीं है जो इस विषय का विशिष्ट ज्ञान रखता हो और वह अंतरराष्ट्रीय जिज्ञासुओं के लिए कुछ लिखने-बताने की क्षमता रखता हो। प्राचीन ज्ञान की महान परंपरा भी अब खतरे में पड़ती दिख रही है।
वर्तमान विवाद में हमारे स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा को लेकर कोई बहस नहीं हो रही है, जो अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य यह नहीं है कि किसी भाषा को पढ़ाया जाए अथवा कुछ तथ्यों को रटाया जाए, बल्कि इसका उद्देश्य विचार की क्षमता को बढ़ाना, प्रश्न करना, विषयों की व्याख्या करना और हमारी बोध क्षमताओं को विकसित करना है। इसका दूसरा उद्देश्य प्रेरणा भरना और युवाओं में मूल्यों का विकास है। केवल एक लगनशील व्यक्ति ही कुछ भी हासिल करने की क्षमता रखता है। ऐसा व्यक्ति ही अपनी पूर्ण मानवीय क्षमताओं को समझ सकता है और उन्हें हासिल कर सकता है। इन दोनों ही लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें लगनशील अध्यापकों की जरूरत है और यही कमी भारतीय शिक्षा की समस्याओं की मूल जड़ है। तमाम अभिभावकों और छात्रों का मानना है कि शिक्षा केवल जीने का एक जरिया है, जबकि वास्तविकता यह है कि यह हमारे जीवन को बनाती है अथवा उसे आकार देती है। निश्चित ही बाद में शिक्षा हमारे कॅरियर को भी बनाती है, लेकिन शुरुआती शिक्षा हममें खुद अपने बारे में विचार करने, कल्पना करने और सपने देखने का आत्मविश्वास भरती है। संस्कृत की उपयुक्त शिक्षा हममें आत्मबोध और मानवीयता की भावना का विकास करती है, जैसा कि लैटिन और ग्रीक की पढ़ाई ने पीढ़ी दर पीढ़ी यूरोपीय लोगों के लिए किया है। वे अपनी जड़ों को पुराने रोम और यूनान में पाते हैं। यह उन लोगों के लिए एक उत्तर है जो पूछते हैं कि आखिर क्यों हम संस्कृत जैसी एक कठिन भाषा की पढ़ाई पर खर्च करें, जबकि हम इकोनामिक्स और कॉमर्स जैसे विषयों की पढ़ाई से अपने जीवन की संभावनाओं को बेहतर बना सकते हैं? वास्तव में संस्कृत भी यह काम कर सकती है और किसी के लिए भी अवसरों को बढ़ा सकती है। इस भाषा के व्याकरण नियमों को सीखने के लिए की गई कठिन मेहनत हमें अपने विचारों को गढ़ने और उन्हें अभिव्यक्त करने की क्षमता दे सकती है। स्कूलों में त्रिभाषा फार्मूले के तहत संस्कृत का अध्ययन विफल रहा। बेहतर अध्यापकों की कमी और खराब पाठ्यक्रम के कारण यह युवाओं का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाई। पौराणिक कामिक बुक्स जैसे कि अमर चित्रकथा और संस्कृत में टीवी कार्टूनों के माध्यम से बच्चों में संस्कृत के प्रति रुचि जगाई जा सकती है। संस्कृत को लेकर मीडिया में चल रही बहस के मुताबिक स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा अनिवार्य करना गलत है। संस्कृत को रटाने और इसे अनिवार्य बनाने के बजाय इसकी बेहतर शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए।
वर्तमान बहस में दोनों ही पक्षों में गंभीरता का अभाव दिखता है, जो केवल अज्ञानता और उन्माद पर आधारित हैं। हिंदुत्ववादियों और सेक्युलरवादियों दोनों को ही समझना चाहिए कि आखिर क्यों आधुनिक युवा संस्कृत से दूर हैं? प्राचीन भारत में हवाई जहाज, स्टेम सेल शोध और प्लास्टिक सर्जरी के आडंबरपूर्ण दावों के कारण संस्कृत की वास्तविक उपलब्धियों और इसकी विश्वसनीयता की उपेक्षा हुई है। उदाहरण के लिए गणितीय दशमलव पद्धति को लिया जा सकता है। हिंदुत्ववादी पक्ष में खुलेपन का अभाव है, जबकि हमारे पूर्वज साहित्य, दर्शन, नाट्य रचना, विज्ञान और गणित को लेकर बहुत ही रचनात्मक और खुले विचारों वाले थे। राष्ट्रवादियों के इन नारों कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है अथवा भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाना चाहिए, ने लोगों को निराश किया है, क्योंकि ऐसा करके भारत को पाकिस्तान के साथ खड़ा किया जा रहा है। दूसरी तरफ वामपंथी चाहे वे मार्क्सवादी हों, नारीवादी हों या पर्यावरणवादी, भी इतिहास को वर्ग, जाति और लैंगिक संघर्ष के संदर्भ में देखने के दोषी हैं। वे उत्तर उपनिवेशवादी इतिहास को औपनिवेशिक दमन के नजरिये से देखते हैं। 18वीं और 19वीं शताब्दी में संस्कृत के प्रति पश्चिमी विद्वानों का योगदान अमूल्य है। उन्होंने ही प्राचीन पांडुलिपियों के गूढ़ रहस्यों को बताया और अतीत के दरवाजों को खोला।
हमें भारत में संस्कृत के भविष्य की परवाह इसलिए करनी चाहिए ताकि हमारे बच्चे अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें। इससे कुछ सर्वाधिक आधारभूत प्रश्नों का जवाब हासिल किया जा सकता है जैसे कि जीवन का क्या अर्थ है? इतिहास के ज्ञान से हम अधिक परिपक्व और आत्मविश्वासी व्यक्ति बनते हैं। यदि हम पिछले 3000 वर्षों के ब्यौरों को पढ़ने की योग्यता खो देंगे तो मानव जीवन के लिए जरूरी कुछ अनिवार्य और आधारभूत चीजों को भी खो देंगे। संस्कृत को पुनर्जीवित करते समय हमें अनिवार्य रूप से इसे धर्म से अलग करना चाहिए। यह राजनीतिक कार्यक्रम न होकर, सभी चिंतनशील भारतीयों की चिंता होनी चाहिए। संस्कृत को पुनर्जीवित करने को लेकर ताजा विवाद अच्छी बात होगी यदि भारत में संस्कृत को पढ़ाने और इसे सीखने की गुणवत्ता में इजाफा हो।
It's great post.thanks for shearing it.
ReplyDeleteBJP GHAZIPUR | BJP | BJP PURVANCHAL
Sir, though, I am not as wise as you are still I want to say that any language is a medium of conversation. If people are not using that medium and want to adopt other medium like hindi, english, tamil etc then we should not interfere in their choice. Sanskrit should be given in syllabus as one of many elective languages. The large legacy of sanskrit must be translated into currenlty popular languages immediately.
ReplyDeleteसंकृत में मेरी भी रूचि है | अब मुझे यह भी पता चल गया है कि संस्कृत की जानकारी का प्रयोग करते हुए मैं एक उच्च गुणवत्ता का गणितीय तार्किक program बना सकता हूँ | अब मुझे संस्कृत सीखना है | क्या आप मुझे संस्कृत से सम्बंधित जानकारियां दे सकते हैं |धन्यवाद्
ReplyDeletegempundit