Monday, December 29, 2014

संस्कृत पर अधूरी बहस

एक समय था जब मैं विश्वास करता था कि मैं एक वैश्विक नागरिक हूं और इस पर गर्व अनुभव करता था कि घास की एक पत्ती बहुत कुछ दूसरी पत्ती की तरह ही होती है। लेकिन अब मैं पाता हूं कि इस धरती पर घास की प्रत्येक पत्ती का अपना एक विशिष्ट स्थान है, जहां से वह अपना जीवन और ताकत पाती है। ऐसे ही किसी भी व्यक्ति की जड़ उस जमीन में होती है जहां से वह अपने जीवन और उससे संबंधित धारणा-विश्वास को अर्जित करता है। जब कोई अपने अतीत की तलाश करता है तो उन जड़ों को मजबूत करने में मदद मिलती है और खुद में आत्मविश्वास आता है। इतिहास को भूलने का मतलब है खुद अपने आपको भुलाने का खतरा। अपनी इस धारणा के तहत ही मैंने कुछ वषरें पूर्व संस्कृत को पढ़ना आरंभ किया था। अपने कॉलेज के दिनों से थोड़ी बहुत संस्कृत की जानकारी मुझे थी, लेकिन अब मैं महाभारत को पढ़ना चाहता था। इसके पीछे मेरा कोई धार्मिक अथवा राजनीतिक उद्देश्य नहीं था, बल्कि यह एक साहित्यिक लगाव था। इस पुस्तक को पूरी सजगता के साथ मैं अपने वर्तमान के लिए पढ़ना चाहता था जो हमारे जीवन को अधिक अर्थपूर्ण बनाता है। मैंने एक पंडित अथवा शास्त्री की तलाश की, लेकिन कोई भी मेरी इस जिज्ञासा को साझा करने के लिए तैयार नहीं हुआ। इस प्रकार मुझे इसके लिए शिकागो यूनिवर्सिटी की ओर रुख करना पड़ा। मुझे संस्कृत पढ़ने के लिए इसलिए विदेश का रुख करना पड़ा, क्योंकि भारत में प्राय: यह एक कटु अनुभव साबित होता है। हालांकि हमारे यहां दर्जनों की संख्या में संस्कृत विश्वविद्यालय हैं, बावजूद इसके हमारे प्रतिभाशाली छात्र संस्कृत अध्यापक अथवा विद्वान नहीं बनना चाहते हैं।

दरअसल मध्य वर्ग इस विषय की पढ़ाई करके नौकरी को लेकर खुद को असुरक्षित महसूस करता है। इसका एक कारण यह भी है कि संस्कृत विषय को खुले तौर पर, जिज्ञासु रूप में और विश्लेषणात्मक मानसिकता से नहीं पढ़ाया जाता। आज संस्कृत के विद्वानों में आजादी के पूर्व की पीढ़ी का कोई ऐसा उत्ताराधिकारी नहीं है जो इस विषय का विशिष्ट ज्ञान रखता हो और वह अंतरराष्ट्रीय जिज्ञासुओं के लिए कुछ लिखने-बताने की क्षमता रखता हो। प्राचीन ज्ञान की महान परंपरा भी अब खतरे में पड़ती दिख रही है।

वर्तमान विवाद में हमारे स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा को लेकर कोई बहस नहीं हो रही है, जो अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य यह नहीं है कि किसी भाषा को पढ़ाया जाए अथवा कुछ तथ्यों को रटाया जाए, बल्कि इसका उद्देश्य विचार की क्षमता को बढ़ाना, प्रश्न करना, विषयों की व्याख्या करना और हमारी बोध क्षमताओं को विकसित करना है। इसका दूसरा उद्देश्य प्रेरणा भरना और युवाओं में मूल्यों का विकास है। केवल एक लगनशील व्यक्ति ही कुछ भी हासिल करने की क्षमता रखता है। ऐसा व्यक्ति ही अपनी पूर्ण मानवीय क्षमताओं को समझ सकता है और उन्हें हासिल कर सकता है। इन दोनों ही लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हमें लगनशील अध्यापकों की जरूरत है और यही कमी भारतीय शिक्षा की समस्याओं की मूल जड़ है। तमाम अभिभावकों और छात्रों का मानना है कि शिक्षा केवल जीने का एक जरिया है, जबकि वास्तविकता यह है कि यह हमारे जीवन को बनाती है अथवा उसे आकार देती है। निश्चित ही बाद में शिक्षा हमारे कॅरियर को भी बनाती है, लेकिन शुरुआती शिक्षा हममें खुद अपने बारे में विचार करने, कल्पना करने और सपने देखने का आत्मविश्वास भरती है। संस्कृत की उपयुक्त शिक्षा हममें आत्मबोध और मानवीयता की भावना का विकास करती है, जैसा कि लैटिन और ग्रीक की पढ़ाई ने पीढ़ी दर पीढ़ी यूरोपीय लोगों के लिए किया है। वे अपनी जड़ों को पुराने रोम और यूनान में पाते हैं। यह उन लोगों के लिए एक उत्तर है जो पूछते हैं कि आखिर क्यों हम संस्कृत जैसी एक कठिन भाषा की पढ़ाई पर खर्च करें, जबकि हम इकोनामिक्स और कॉमर्स जैसे विषयों की पढ़ाई से अपने जीवन की संभावनाओं को बेहतर बना सकते हैं? वास्तव में संस्कृत भी यह काम कर सकती है और किसी के लिए भी अवसरों को बढ़ा सकती है। इस भाषा के व्याकरण नियमों को सीखने के लिए की गई कठिन मेहनत हमें अपने विचारों को गढ़ने और उन्हें अभिव्यक्त करने की क्षमता दे सकती है। स्कूलों में त्रिभाषा फार्मूले के तहत संस्कृत का अध्ययन विफल रहा। बेहतर अध्यापकों की कमी और खराब पाठ्यक्रम के कारण यह युवाओं का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाई। पौराणिक कामिक बुक्स जैसे कि अमर चित्रकथा और संस्कृत में टीवी कार्टूनों के माध्यम से बच्चों में संस्कृत के प्रति रुचि जगाई जा सकती है। संस्कृत को लेकर मीडिया में चल रही बहस के मुताबिक स्कूलों में संस्कृत की शिक्षा अनिवार्य करना गलत है। संस्कृत को रटाने और इसे अनिवार्य बनाने के बजाय इसकी बेहतर शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए।

वर्तमान बहस में दोनों ही पक्षों में गंभीरता का अभाव दिखता है, जो केवल अज्ञानता और उन्माद पर आधारित हैं। हिंदुत्ववादियों और सेक्युलरवादियों दोनों को ही समझना चाहिए कि आखिर क्यों आधुनिक युवा संस्कृत से दूर हैं? प्राचीन भारत में हवाई जहाज, स्टेम सेल शोध और प्लास्टिक सर्जरी के आडंबरपूर्ण दावों के कारण संस्कृत की वास्तविक उपलब्धियों और इसकी विश्वसनीयता की उपेक्षा हुई है। उदाहरण के लिए गणितीय दशमलव पद्धति को लिया जा सकता है। हिंदुत्ववादी पक्ष में खुलेपन का अभाव है, जबकि हमारे पूर्वज साहित्य, दर्शन, नाट्य रचना, विज्ञान और गणित को लेकर बहुत ही रचनात्मक और खुले विचारों वाले थे। राष्ट्रवादियों के इन नारों कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है अथवा भगवद्गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाना चाहिए, ने लोगों को निराश किया है, क्योंकि ऐसा करके भारत को पाकिस्तान के साथ खड़ा किया जा रहा है। दूसरी तरफ वामपंथी चाहे वे मा‌र्क्सवादी हों, नारीवादी हों या पर्यावरणवादी, भी इतिहास को वर्ग, जाति और लैंगिक संघर्ष के संदर्भ में देखने के दोषी हैं। वे उत्तर उपनिवेशवादी इतिहास को औपनिवेशिक दमन के नजरिये से देखते हैं। 18वीं और 19वीं शताब्दी में संस्कृत के प्रति पश्चिमी विद्वानों का योगदान अमूल्य है। उन्होंने ही प्राचीन पांडुलिपियों के गूढ़ रहस्यों को बताया और अतीत के दरवाजों को खोला।

हमें भारत में संस्कृत के भविष्य की परवाह इसलिए करनी चाहिए ताकि हमारे बच्चे अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें। इससे कुछ सर्वाधिक आधारभूत प्रश्नों का जवाब हासिल किया जा सकता है जैसे कि जीवन का क्या अर्थ है? इतिहास के ज्ञान से हम अधिक परिपक्व और आत्मविश्वासी व्यक्ति बनते हैं। यदि हम पिछले 3000 वर्षों के ब्यौरों को पढ़ने की योग्यता खो देंगे तो मानव जीवन के लिए जरूरी कुछ अनिवार्य और आधारभूत चीजों को भी खो देंगे। संस्कृत को पुनर्जीवित करते समय हमें अनिवार्य रूप से इसे धर्म से अलग करना चाहिए। यह राजनीतिक कार्यक्रम न होकर, सभी चिंतनशील भारतीयों की चिंता होनी चाहिए। संस्कृत को पुनर्जीवित करने को लेकर ताजा विवाद अच्छी बात होगी यदि भारत में संस्कृत को पढ़ाने और इसे सीखने की गुणवत्ता में इजाफा हो।

Tuesday, December 16, 2014

धारावी से प्रेरणा लेकर शहर बनाएं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जल्द ही हमारे शहरों को पुनर्जीवित करने वाले महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की शुरुआत ‘स्मार्ट सिटी’ के बैनर तले करने वाले हैं। हालांकि, भारतीय शहर स्मार्ट तब बनेंगे जब इन्हें उन वास्तविक परिस्थितियों को केंद्र में रखकर बनाया जाएगा, जिनमें भारतीय काम करते हैं और उन्हें लालची राज्य सरकारों के चंगुल से छुड़ाकर स्वायत्तता दी  जाएगी। जब तक शहरों में सीधे चुने गए ऐसे मेयर नहीं होंगे, जिन्हें शहर के लिए पैसा जुटाने की आज़ादी हो और म्यूनिसिपल कमिश्नर जिनके मातहत हों, तब  तक शहरी भारत स्मार्ट होने वाला नहीं।
‘स्मार्ट सिटी’ जुमला हमारी कल्पना को आकर्षित करता है और महत्वाकांक्षी भारत के सामने टेक्नोलॉजी पर आधारित टिकाऊ शहरी भारत का विज़न रखता है। आज़ादी के बाद मोदी पहले ऐसे राजनेता हैं, जो शहरों के बारे में सकारात्मक ढंग से बोल रहे हैं। अब तक नेताओं ने पैसे के लिए शहरों का दोहन तो किया है पर उसमें निवेश कुछ नहीं किया। सरल-सा कारण था, वोट तो गांवों में ही थे। मोदी को अहसास है कि भारत का भविष्य शहरों में लिखा जाएगा। एक-तिहाई भारत तो पहले से ही वहां रह रहा है और देश का दो-तिहाई रोजगार व संपदा वहां पैदा हो रही है। 2030 तक हमारे शहर देश की प्रति व्यक्ति आय में चार गुना इजाफा करेंगे।

आज भारतीय शहर संकट में है। भीड़भरे, शोर-गुल, प्रदूषण और हिंसा। शहरों की भद्‌दी वास्तविकता के कारण हम गांवों के रूमानी सपनों में खो जाते हैं। शहर से ही आए महात्मा गांधी ऐसे ही आत्म-निर्भर गांवों की कल्पना करते थे, जब तक कि डॉ. भीमराव आंबेडकर ने उनके दृष्टिकोण को नहीं सुधारा। उन्होंने कहा, ‘गांव स्थानीयवाद के कूड़ेदान, अज्ञान के अड्‌डे, संकुचित मानसिकता और सांप्रदायिकता के सिवाय है क्या? ’ नेहरू भी गांवों को लेकर दुविधापूर्ण मनस्थिति में थे। उनका संदेह इस समाजवादी विचार से उपजा था कि  शहर, गांवों से आने वाले गरीब कामगारों का शोषण करते हैं। 1940 और 1950 के दशक की हिंदी फिल्मों ने भी ‘गुणवान’ गांवों और ‘अनैतिक’ शहरों की यह छवि पुष्ट की थी।

नेहरू के समय से ही शहरों के लिए कुलीनवादी मास्टर प्लान बनाने का फैशन था। इसमें जमीन, पूंजी और पानी की भारी बर्बादी होती और इसमें भारतीय हजारों वर्षों से जिस तरह रह रहे हैं, उसे नजरअंदाज कर दिया जाता है। ये सख्त मास्टर प्लान कामकाजी और रहने की जगहों को अलग करने के उच्च वर्ग के विचार पर आधारित होते हैं। यह बहुत विनाशक तरीके से कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में व्यक्त हुआ, जिसने दिल्ली के लाखों गरीबों की आजीविका खत्म कर दी।

इसी मानसिकता ने नेहरू को पंजाब व हरियाणा की राजधानी के रूप में चंडीगढ़ स्थापित करने को प्रेरित किया, जिसमें कई एकड़ आकर्षक ग्रीन बेल्ट मौजूद है। चंडीगढ़ मुख्यत: नौकरशाहों के लिए हैं और आम आदमी की आजीविका के विरुद्ध है। अब मोदी ने हमारी शब्दावली में ‘स्मार्ट सिटी’ जुमला और ला दिया है। मैं समझता हूं कि यह पर्यावरण के अनुकूल, टेक्नोलॉजी से एकीकृत और समझदारी से नियोजित शहर है, जिसका जोर सूचना प्रौद्योगिकी के जरिये शहरी मुश्किलें दूर करने पर है।

किंतु शहर तब तक ‘स्मार्ट’ नहीं हो सकता जब तक यह आम आदमी की आजीविका को केंद्र में रखकर डिजाइन नहीं किया जाता। इसके लिए मानवीय दृष्टिकोण से हमारे शहरी गरीबों और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को केंद्र में रखकर सोचना चाहिए। हमें हरे-भरे चंडीगढ़ से नहीं, मुंबई की कुख्यात झुग्गी बस्ती धारावी से प्रेरणा लेनी चाहिए। यह हमें बताती है कि जब गांवों के लोग आजीविका की तलाश में शहरों में आते हैं और काम की जगह के पास ही रहने की जगह खोज लेते हैं तो किस प्रकार शहर का संगठित रूप से विकास होता है।

उनकी जरूरतें पूरी करने के लिए किराना, हेयर कटिंग सैलून, साइकिल रिपेयर और मोबाइल फोन रिचार्जिंग की दुकानें पैदा हो जाती हैं। धारावी की ताकत सड़कों पर दिखाई देने वाली सामाजिकता है, जहां अजनबियों के साथ परस्पर निर्भरता के रिश्ते बन जाते हैं। सड़कों की यह जिंदगी हर भारतीय शहर के लिए महत्वूपूर्ण है। यह अमेरिका में 1950 के बाद से गायब हो गई, जब ऑटोमोबाइल के विकास के साथ लोग उपनगरों में रहने चले गए। दुर्भाग्य से बड़ी संख्या में भारतीय इस अमेरिकी उपनगरीय जीवन-शैली से अभिभूत हैं। नतीजा यह है कि कई शहरी नियामक संस्थाएं जमीन के मिश्रित उपयोग की अनुमति नहीं देतीं कि एक ही कॉलोनी में कामकाजी और रहवासी दोनों क्षेत्रों का साथ में अस्तित्व हो।

कई बहुमंजिला इमारतों को इजाजत नहीं देते। ऐसे देश में यह बेतुका है, जहां जमीन की कमी हो। जिस देश में लोग पैदल चलते हों और साइकिल की सवारी करते हों, वहां सड़क बनाते समय सबसे पहले फुटपाथ और साइकिल पथ के बारे में सोचा जाना चाहिए। इसकी बजाय हमारी कुलीनवादी मानसिकता हजार छात्रों के लिए सैकड़ों एकड़ क्षेत्र वाली यूनिवर्सिटी बनाने की अनुमति देती है, जबकि समझदारी तो इसके लिए शहर के मध्य में बहुमंजिला इमारत बनाने में होती। वहां छात्र जनता का हिस्सा होते और रोज लोगों से उनका संपर्क रहता।

स्मार्ट सिटी को शासन और आर्थिक मामलों में स्वायत्त होना जरूरी है। आज भारतीय शहर राज्य सरकारों की दया पर निर्भर हैं। इसके लिए 74वां संविधान संशोधन लाया गया था, लेकिन राज्यों ने इसमें अड़ंगा डाल दिया। जब तक लोगों के प्रति जवाबदेह मेयर नहीं होगा, सेवाओं में सुधार भी नहीं होगा। म्यूनिसिपल कमिश्नर मुख्यमंत्री के नहीं, मेयर के मातहत होना चाहिए। पैसा जुटाने के इसके अपने संसाधन होने चाहिए। वह टैक्स के अलावा दी जा रही सेवाओं के बदले तर्कसंगत शुल्क वसूल करे। राजस्व बंटवारे के तहत राज्य के साथ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि पहले से ही पता हो कि कितना पैसा मिलने वाला है। दुनिया के कई शहरों की तरह इसे म्यूनिसिपल बांड जारी करने की अनुमति होनी चाहिए। मोदी को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे शहरों को पुनर्जीवित करने को केंद्र के एजेंडे में ले आए।

उन्हें जल्दबाजी न कर, सावधानी से कार्यक्रम विकसित करना चाहिए। जब वे स्मार्ट सिटी का कार्यक्रम लाएंगे तो लोग उन पर शोशेबाजी या नई बोतल में पुरानी शराब का आरोप लगाएंगे। एक अर्थ में यह सही भी है, क्योंकि यह विचार पुरानी सरकार के जेएनएनयूआरएम का हिस्सा रहा है। किंतु 20 साल बाद आप क्या याद रखेंगे, जेएनएनयूआरएम या स्मार्ट सिटी? बेशक, यह ऐसा नाम है, जो लोगों को इसके लिए एकजुट करेगा। कामना है कि यह वाकई ऐसा कार्यक्रम साबित हो, जो भारत के भविष्य को रूपांतरित कर दे।

Sunday, December 14, 2014

Sanskrit, taught well, can be as rewarding as economics

There was a time when I used to believe like Diogenes the Cynic that I was a citizen of the world, and I used to strut about feeling that one blade of grass is much like another.

Now I feel that each blade has its unique spot on the earth from where it draws its life and strength. So is a man rooted to a land from where he derives his life and his faith. Discovering one’s past helps to nourish those roots, instilling a quiet self-confidence as one travels through life. Losing that memory risks losing a sense of the self.

With this conviction I decided to read Sanskrit a few years ago. I knew a little from college but now I wanted to read the Mahabharata. Mine was not a religious or political project but a literary one. But I did not want to escape to ‘the wonder that was India’. I wanted to approach the text with full consciousness of the present, making it relevant to my life. I searched for a pundit or a shastri but none shared my desire to ‘interrogate’ the text so that it would speak to me. Thus, I ended up at the University of Chicago.

I had to go abroad to study Sanskrit because it is too often a soul-killing experience in India. Although we have dozens of Sanskrit university departments, our better students do not become Sanskrit teachers. Partly it is middle-class insecurities over jobs, but Sanskrit is not taught with an open, enquiring, analytical mind. According to the renowned Sanskritist, Sheldon Pollock, India had at Independence a wealth of world-class scholars such as Hiriyanna, Kane, Radhakrishnan, Sukthankar, and more. Today we have none.

The current controversy about teaching Sanskrit in our schools is not the debate we should be having. The primary purpose of education is not to teach a language or pump facts into us but to foster our ability to think — to question, interpret and develop our cognitive capabilities. A second reason is to inspire and instill passion. Only a passionate person achieves anything in life and realizes the full human potential. And this needs passionate teachers, which is at the heart of the problem.

Too many believe that education is only about ‘making a living’ when, in fact, it is also about ‘making a life.’ Yes, later education should prepare one for a career, but early education should instill the self-confidence to think for ourselves, to imagine and dream about something we absolutely must do in life. A proper teaching of Sanskrit can help in fostering a sense of self-assuredness and humanity, much in the way that reading Latin and Greek did for generations of Europeans when they searched for their roots in classical Rome and Greece.

This is the answer to the bright young person who asks, ‘Why should I invest in learning a difficult language like Sanskrit when I could enhance my life chances by studying economics or commerce?’ Sanskrit can, in fact, boost one’s life chances. A rigorous training in Panini’s grammar rules can reward us with the ability to formulate and express ideas that are uncommon in our languages of everyday life. Its literature opens up ‘another human consciousness and another way to be human’, according to Pollock.

Teaching Sanskrit under the ‘three-language formula’ has failed because of poor teachers and curriculum. Mythological comic books such as Amar Chitra Katha and TV cartoons in Sanskrit with captions might at least catch the imagination of children. But the debate is also about choice. Those who would make teaching Sanskrit compulsory in school are wrong. We should foster excellence in Sanskrit teaching rather than shove it down children’s throats.

The lack of civility in the present debate is only matched by ignorance and zealotry on both sides. The Hindu right makes grandiose claims about airplanes and stem cell research in ancient India and this undermines the real achievements of Sanskrit. The anti-brahmin, Marxist, post-colonial attack reduces the genuine achievements of Orientalist scholars to ‘false consciousness’. Those who defend Sanskrit lack the open-mindedness that led, ironically, to the great burst of creative works by their ancestors. In the end, the present controversy might be a good thing if it helps to foster excellence in teaching Sanskrit in India.