Thursday, February 19, 2015

दिल्ली चुनाव को भूल जाएं मोदी

जिस दिन आम आदमी पार्टी दिल्ली में चौंकाने वाली जीत दर्ज कर रही थी, उसी दिन मैं पाकिस्तानी लेखक शाहिद नदीम के लाजवाब नाटक दारा का आनंद उठा रहा था। इसका मंचन हाल ही में लंदन के नेशनल थियेटर में किया गया था। तमाम स्कूली छात्र औरंगजेब और दारा शिकोह के बीच चल रही खूनी जंग के बारे में जानते हैं, लेकिन यह नाटक केवल उत्ताराधिकार की लड़ाई तक ही सीमित नहीं है। इसमें दिखाया गया है कि भारत क्या था, क्या बन गया और क्या होना चाहिए था। यह आज की जनता को संबोधित था और इसमें नाखुश पाकिस्तान और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गंभीर नसीहत देता है। इसमें यह नसीहत भी है कि पिछले दिनों दिल्ली चुनाव में भाजपा को जो झटका लगा है भविष्य में वैसे झटकों से कैसे बचा जा सकता है। मानव इतिहास में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिले हैं। सबसे हृदयविदारक घटनाओं में से एक है जब मुगल बादशाह शाहजहां के बड़े बेटे और गद्दी के उत्ताराधिकारी दारा शिकोह का सिर कलम कर दिया गया था। तबसे भारतीयों को एक सवाल कचोटता रहता है कि अगर कट्टरपंथी और असहिष्णु औरंगजेब के बजाय दारा शिकोह भारत की गद्दी पर बैठता तो इतिहास की क्या दशा-दिशा होती। भारत के आखिरी वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन की कुख्यात गैरजिम्मेदारी के कारण 1947 में विभाजन का जो दंश झेलना पड़ा था, उसके बीज दारा शिकोह के जीवनकाल में ही रौप दिए गए थे।

दारा का संबंध अतीत से ही नहीं है। तमाम ऐतिहासिक नाटकों की यह भी आज के जमाने में प्रासंगिक है। जहां लंदनवासी सीरिया में आइएस के भयावह इस्लामिक उग्रवाद को लेकर भौचक थे, मैं मोहन भागवत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की परियोजना को लेकर चिंतित था। जहां दारा की तरह मोदी भारत पर तमाम भारतीयों के लिए शासन करना चाहते हैं, वहीं मोहन भागवत भारत को बदनसीब पाकिस्तान में बदल देना चाहते हैं। संपूर्ण संघ परिवार को यह नाटक देखना चाहिए। कोई भी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सुनामी को नहीं समझ पा रहा है, और केजरीवाल तो सबसे कम। निश्चित तौर पर यह भारत के ढुलमुल लोकतंत्र की जीत है। किंतु असल मुद्दा यह है कि भारत के राजनेता इसकी किस तरह व्याख्या करेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गलत सबक नहीं सीखने चाहिए। यह उनके विकास और सुधार एजेंडे के खिलाफ जनादेश नहीं है। उन्हें लोकलुभावन नीतियों से बचना होगा। असल में यह जनादेश संघ परिवार की विभाजनकारी नीतियों का खंडन है। आप की भारी-भरकम जीत बताती है कि दिल्ली के बहुत से मतदाता, जिन्होंने मई 2014 में मोदी के पक्ष में वोट दिया था, अब भाजपा से छिटक गए हैं। इनमें खासतौर पर अल्पसंख्यक मतदाता शामिल हैं। इसलिए मोदी को दारा पर ध्यान देने की जरूरत है।

दारा शिकोह एक अद्भुत और शानदार व्यक्तित्व थे। 1526 में मुगल शासन की शुरुआत से 1857 में इसके अंत तक जितने भी मुगल राजकुमार हुए, उनमें वह सबसे अलग और अनोखे थे। उनके अंदर दो महान पूर्वजों हुमायूं और अकबर के गुण थे। उनके जीवन का महान ध्येय था हिंदुओं और मुसलमानों के बीच शांति और भाईचारा कायम करना। वह एक सूफी बुद्धिजीवी बने, जिसका मानना था कि हर किसी के लिए भगवान की तलाश समान है। उन्होंने अपना जीवन वेदांतिक और इस्लामिक अध्यात्म में समन्वय बैठाने में समर्पित कर दिया। वह मानते थे कि कुरान में अदृश्य किताब-किताब अल-मकनन, वास्तव में उपनिषद थे। उन्होंने संस्कृत सीखी और उपनिषद, भगवतगीता और योग वशिष्ठ का फारसी में अनुवाद किया। इसमें उन्होंने बनारस के पंडितों की मदद ली। अकबर और कबीर के पदचिह्नों पर चलते हुए उन्होंने सिख गुरु हर राय का अध्ययन किया। उन्हें अमृतसर में गोल्डन टेंपल की आधारशिला स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया गया। संभवत: वह भारतीय सांस्कृतिक समन्वय का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। वर्ह ंहदू और इस्लाम की रहस्य परंपराओं को एक दूसरे से जोड़ते रहे।

1657 में शाहजहां बीमार पड़ गए और औरंगजेब गद्दी के उत्ताराधिकारी अपने बड़े भाई दारा शिकोह के खिलाफ खड़ा हो गया। वह एक कट्टर मुसलमान था और दारा के विचारों को गलत मानता था। साथ ही वह अवसरवादी भी था। उसने सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए दारा को रास्ते से हटाने का फैसला किया। उसने इस्लामिक मौलवियों और उलेमाओं की उच्चस्तरीय परिषद की बैठक बुलाई। इस परिषद में उसने अपनी मित्रमंडली और समर्थकों को भरा हुआ था। इस परिषद ने दारा शिकोह को शांति भंग करने और इस्लाम के प्रति गद्दारी का दोषी पाया और 30 अगस्त, 1659 की रात को मौत के घाट उतार दिया। अगर दारा इस सत्ता संघर्ष में जीत जाते तो भारत का भविष्य कुछ और ही होता। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मुगल साम्राज्य इसलिए पतन के गर्त में गिरने लगा क्योंकि दारा शिकोह की मौत के समय औरंगजेब को महान सूफी संत और फारसी के प्रसिद्ध कवि सरमद ने श्राप दिया था।

सिंहासन पर बैठते ही औरंगजेब ने गैर-मुस्लिम भारत पर कड़ा शरिया शासन थोप दिया। विडंबना यह है कि अपने भाइयों, भतीजों और खुद के बच्चों के हत्यारे औरंगजेब को पाकिस्तान में मुसलमानों का नायक माना जाता है और दारा शिकोह को फुटनोट में ही जगह मिल पाई है। सौभाग्य से पाकिस्तान और भारत दोनों ही देशों में उदारवादी लेखकों ने दारा की अद्भुत विरासत को जिंदा रखा। कुछ वषरें के अंतराल पर उनके जीवन पर कोई न कोई किताब सामने आ जाती है। अगले सप्ताह 28 फरवरी को भारत सरकार बजट लाने जा रही है। हमें देखना होगा कि दिल्ली चुनावों में आप की जीत से मोदी ने क्या सबक लिए हैं। अगर वह इस जीत का कारण मुफ्त उपहार बांटना मानते हैं और सुधारों व ढांचागत विकास के कठिन रास्ते से हट जाते हैं तो यह शर्मनाक होगा। यही एकमात्र रास्ता है जिससे भारत में रोजगार पैदा होंगे और आर्थिक भविष्य सुनहरा होगा। अगर वह दिल्ली के चुनावों की पुनरावृत्तिनहीं चाहते तो उन्हे हिंदुओं के दक्षिणपंथी उभार पर अंकुश लगाना होगा। उन्हें औरंगजेब के कट्टरपंथ, असहिष्णु आचरण के बजाय दारा के विचारों से प्रेरणा लेनी होगी।

दिल्ली में गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी में आज भी दारा शिकोह द्वारा स्थापित किया गया पुस्तकालय मौजूद है। आप समय निकाल कर इसमें जाएं। अब यह भारतीय पुरातत्विक सर्वे द्वारा संचालित एक संग्रहालय के रूप में है। आप अपने दिमाग को दारा के विचारों की लौ प्रेरणा लेने दें कि धर्म सत्य, सौंदर्य, प्रेम और न्याय की शांतिपूर्ण तलाश है। जो सत्ता की हवस के लिए धर्म का इस्तेमाल करते हैं वे इतिहास के खलनायक हैं।

Wednesday, February 18, 2015

एक त्रासदी का मानवीय पहलू

पिछले छह हफ्तों से लेखक राजनेता शशि थरूर उस अजीब से चलन के शिकार हैं, जिसे मीडिया ट्रायल का नाम दिया जाता है। जब जिंदगी बुरा मोड़ लेती है तो मीडिया निष्ठुर भी हो सकता है। एक दिन तो यह सेलेब्रिटी को आसमान की बुलंदियों पर ले जाने में खुशी महसूस करता है और उतनी ही खुशी से यह अगले ही दिन उन्हें धड़ाम से नीचे लाकर पटक देता है। थरूर की पत्नी की त्रासदीपूर्ण मौत को एक साल से कुछ ज्यादा अरसा हो गया है। 1 जनवरी 2014 को सुनंदा ने अपने पति पर पाकिस्तानी पत्रकार के साथ अंतरंग संबंधों का आरोप लगाया था। जल्द ही दिल्ली के पांच सितारा होटल में उनकी मौत हो गई। कहा गया कि यह खुदकुशी थी। परंतु पिछले महीने पुलिस ने हत्या का मामला दायर किया और दिल्ली पुलिस के प्रमुख बीएस बस्सी ने कहा कि सुनंदा पुष्कर की मौत जहर से हुई।

2010 में विवाह के बाद से थरूर पति-पत्नी ‘ड्रीम कपल’ माने जाते थे। वे आक्रामक मीडिया के फोकस में अपनी ईर्ष्याजनक खुशनुमा जिंदगी जी रहे थे। सुनंदा आकर्षक थीं और शशि अच्छे वक्ता, करिश्माई अंदाज और बौद्धिक स्तर पर प्रेरक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति हैं। परंपरागत भारतीय राजनेता की छवि में यह स्वागतयोग्य परिवर्तन था। आज दिल्ली पुलिस हत्या के मामले में शशि थरूर से पूछताछ कर रही है।

मानव की प्रवृत्ति त्रासदी के गहरे कारणों को तलाश करने और उन्हें समझने की कोशिश करने की बजाय पक्ष लेने की होती है। ‘किसने किया’ इस बारे में अटकलें लगाना निरर्थक है। वह पुलिस का काम है। अारोप लगाने की बजाय मानवीय तृष्णा (काम) की प्रकृति, इसकी अस्पष्ट सीमाएं और क्यों यह हम सबको एेसे संकट में डाल देती है, इसे समझना शायद उपयोगी होगा। खुद को त्रासदी के शिकार व्यक्ति की जगह रखकर शुरुआत करना ठीक होगा। ईसाई धर्म वाले पश्चिम में सृष्टि निर्मिति प्रकाश से शुरू हुई। बाइबल के अनुसार ईश्वर ने कहा- ‘प्रकाश हो जाए।’ प्राचीन भारतीय परंपरा कहती है कि प्रारंभ में तृष्णा (काम) थी। ऋग्वेद के अनुसार उस ‘एक’ के मन में ‘काम’ वह पहला बीज था, जिसकी ‘विशाल तृष्णा’ संसार की उत्पत्ति का कारण बनी। इस तरह ब्रह्मांड का जन्म आदिम जैविक ऊर्जा से हुआ। परंतु वह ‘एक’ को अकेलापन महसूस हुआ और उसने अपने शरीर को दो में विभाजित किया, जिससे स्त्री-पुरुष अस्तित्व में आए। उपनिषद में वर्णित यह आदिम विभाजन इशारा करता है कि मानव की मूल स्थिति अकेलेपन की है। हम दुनिया में अकेले आए थे और अकेले ही जाएंगे। अकेलापन दूर करने के लिए आदिम पुरुष ने आदिम स्री से संयोग किया और मानव जाति का प्रादुर्भाव हुआ। ‘काम’ की शारिरिक अंतरंगता हमारी एकाकीपन की भावनाअों पर काबू पाने में मददगार होती है।

चूंकि काम ही सबकुछ है- जीवन का स्रोत, क्रिया का मूल और सारी गतिविधियों का कारण, हमारे प्राचीन ऋषियों ने इसे ‘त्रिवर्ग’ में प्रतिष्ठित किया। जीवन के तीन लक्ष्य। इसके बाद भी भारतीय काम को लेकर दुविधा में ही रहे। वजह यह थी कि तृष्णा अंधी, उन्मत्त और इतनी आवेशयुक्त होती है कि उसे काबू में करना कठिन होता है। धोखाधड़ी, विश्वासघात, ईर्ष्या और अपराधबोध इसके चारों तरफ मंडराते रहते हैं। इस मामले में सुनंदा पुष्कर की ईर्ष्या के कारण यह त्रासदी हुई।

अपने मिश्रित स्वभाव के कारण ‘काम’ के अपने आशावादी और निराशावादी रहे हैं। आशावादी काम के दूसरे अर्थ ‘सुख’ पर ध्यान केंद्रित करते हैं। वे मानते हैं कि हमारे अल्प और रूखे जीवन में किसी प्रकार के सुख की अपेक्षा करने में कुछ गलत नहीं है। इसी विचार ने ‘कामसूत्र’ जैसी रचना, उद्‌दीपक कलाओं और प्रेम-काव्य को जन्म दिया, जो गुप्त साम्राज्य के दरबारों में खूब फले-फूले। निराशावादी प्राथमिक रूप से तपस्वी संन्यासी थे, जिनके लिए तृष्णा उनके आध्यात्मिक लक्ष्य में बाधक थी। भ्रम में पड़े संसारी लोग इन दो अतियों में मंडराते रहते और इनके उत्तर धर्म ग्रंथों में खोजते हैं। धर्मशास्त्रों ने काम के सकारात्मक गुणों को स्वीकार किया, लेकिन साथ ही इसे एकल विवाह तक सीमित कर दिया, लेिकन स्त्री-पुरुषों ने एकल विवाह के अतिक्रमण करने के तरीके खोज लिए, जिससे अवैध प्रेम का उदय हुआ।

महाकाव्यों के कवियों ने काम और धर्म में अंतर्निहित विरोधाभास के कारण इसमें निहित त्रासदी की आशंका को देख लिया था। यदि धर्म दूसरों के प्रति हमारा कर्तव्य है तो काम स्वयं के प्रति कर्तव्य है। महाकाव्यों में अामतौर पर धर्म, काम को मात दे देता है, क्योंकि हम यह मानते हैं कि अपने आनंद के लिए दूसरों को आहत करना गलत है। पुरुष सत्ता और यौन संबंधों में असमानता के कारण (सुनंदा जैसी) महिला के लिए त्रासदी की ज्यादा संभावना है। महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण पुरुष सत्ता का सबसे जाना-पहचाना प्रदर्शन है।

पुष्कर-थरूर मामले के पीछे नैतिकता की कहानी है। केवल थरूर को ही अपनी अंतरात्मा में उनके विवाह में काम धर्म के अपरिहार्य संघर्ष और जिन सीमाओं का उल्लंघन हुआ उनका सच मालूम होगा। खुद के प्रति कर्तव्य और दूसरों के प्रति कर्तव्य के बीच राह निकालना आसान नहीं है। आप चाहे शारिरिक रूप से इसका उल्लंघन भी करें, हममें से कई दिल ही दिल में तो ऐसा करते हैं।

मशहूर शख्सियतों के ऐसे सेक्स स्कैंडल मीडिया के लिए बिन मांगी मुराद पूरी होने जैसा है, लेकिन यह घटना इससे कहीं आगे मनुष्य के गिरते नैतिक स्तर की ओर इशारा करती है। ‘काम’ केवल सृजन का कारक और परिणाम ही नहीं है, यह हर अच्छे आैर बुरे कर्म की जड़ में है। एक ओर यह प्रेम, प्रसन्नता और सृजन का कारण है तो ईर्ष्या, क्रोध और हिंसा के पीछे भी यही है। क्या इन दोनों पहलुअों को अलग नहीं किया जा सकता? क्या दर्द के बिना खुशी मिलना संभव है? क्या हिंसा के बिना सृजन हो सकता है? इस कहानी में हमारे युवाओं पर मध्यवर्गीय नैतिकताएं थोपने के लिए हमेशा तैयार हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए राजनीतिक संदेश भी है। वे 19वीं सदी में विक्टोरियाकालीन इंग्लैंड के ईसाई मिशनरियों जैसा बर्ताव करते हैं। वे कामेच्छा की अनुमति नहीं देते या इसे पाप बताते हैं। इससे आम इंसान खुद को दोषी समझने लगता है। वे याद रखें कि हमारी शास्त्रीय परंपराओं में काम के सृजनात्मक पहलुओं को मान्यता हासिल है। विक्टोरियाइयों ने काम संबंधी इच्छाओं के लिए पाखंड का सहारा लिया, जबकि प्राचीन भारतीय इसके बारे में सहज रहे। आज इसका उल्टा हो रहा है। पश्चिमी समाज जहां इसके प्रति सहज और आधुनिक रवैया अपना चुका है, दक्षिणपंथी हिंदू समाज वेलेंटाइन डे जैसे आयोजनों का विरोध कर ज्यादा पाखंडी और असहनशील बनता जा रहा है।

Sunday, February 15, 2015

AAP staged PM must heed a Mughal prince

On the fateful day that the Aam Aadmi Party won a stunning victory in Delhi’s state election, I was captivated by the tragedy of ‘Dara’, a superb play by Pakistani writer Shaheed Nadeem, which opened recently at the National Theatre in London. Schoolchildren across India know all about the murderous rivalry between Aurangzeb and Dara Shikoh for the Mughal throne but this play is not only about a war of succession; it is about what India was, what it became, and what it might have been. It speaks to us today and offers some sobering advice both to unhappy Pakistan and to Prime Minister Modi, including how to avoid shocking reverses such as the one delivered by Delhi’s voters this week.

There are turning points in human history. One of the most poignant in India’s history was the beheading of the Mughal emperor Shah Jahan’s eldest son and heir-apparent, Dara Shikoh. Ever since then Indians have been haunted by the tantalizing question: what would have been the course of our history had Dara become emperor instead of his orthodox and intolerant younger brother, Aurangzeb? The seeds of the violent partition of India in 1947 — carried out with disgraceful lack of responsibility by the last viceroy of India, Lord Mountbatten — were planted by events in Dara’s life, which led to the greatest mass migration in human history.

‘Dara’ is not only about the past. Like all great historical plays, it is about our present. While Londoners were drawing parallels with Islamic extremism of the IS in Syria, I was thinking about Mohan Bhagwat and the Rashtriya Swayamsevak Sangh’s project to convert India into a ‘Hindu rashtra’. Whereas Modi, like Dara, wants to rule India for all Indians, Bhagwat wants to change India into ill-fated Pakistan. All of the RSS, indeed the entire Sangh Parivar, should see this play.

No one quite understands the tsunami unleashed in Delhi by AAP, least of all Arvind Kejriwal. It is certainly a victory for India’s fickle democracy. But the nub is how will politicians interpret it. Prime Minister Modi should not learn the wrong lessons. It is not a negative verdict on his development and reform agenda — he should resist the temptation to turn populist. Instead, it is a rejection of the Sangh Parivar’s divisive politics. The magnitude of AAP’s victory suggests that many Delhi voters (especially the minorities), who had voted for Modi in May, deserted the BJP now. Hence, Modi needs to heed Dara.

Dara Shikoh (1615-1659) was a gentle Sufi intellectual, who believed that the search for God is the same for everyone and devoted his life to synthesizing Vedantic and Islamic spirituality. Thinking that the ‘hidden book’ in the Quran, ‘Kitab al-Maknun’, is in fact the Upanishads, he learned Sanskrit and translated the Upanishads, Bhagavad Gita, and Yoga Vasishtha into Persian with the help of the pundits of Banaras. Following in Akbar’s footsteps, he cultivated the Sikh guru, Har Rai, and was invited to lay the foundation stone of the Golden Temple in Amritsar. All this did not go well with the orthodox bigot Aurangzeb, who declared Dara a threat to public peace and a traitor to Islam. And so, Dara was put to death and Aurangzeb succeeded to the throne to establish a harsh Sharia rule over an overwhelmingly non-Muslim India. Ironically, today it is Aurangzeb — the killer of his brothers, nephews, and his own children — who is a Muslim hero in Pakistani history while Dara has been reduced to a footnote. Fortunately, liberal writers both in Pakistan and India keep his wonderful legacy alive by coming up with a new play or a book on his life every few years.

In a couple of weeks the government will announce its budget and we shall find out the sort of lessons that Modi has drawn from AAP’s victory. It would be a shame if he saw it as a victory for giveaways and handouts, and backs off from the difficult path of reforms and infrastructure building — the only sure way to create jobs and secure India’s economic future. If he does not want another repeat of what happened in Delhi, he must muzzle the Hindu right, teaching it not to emulate the intolerant, fanatical Aurangzeb but to be inspired by Dara’s idea of India.

Tuesday, February 03, 2015

हिंदुत्व नहीं, नौकरियां लाएं मोदी

2014 का वर्ष भाजपा के लिए शानदार रहा! मोदी की बहुत बड़ी उपलब्धि ने उनकी पार्टी को सुसंगत आर्थिक नीति दी, जो रोजगार निर्मित करने और आर्थिक वृद्धि के लिए बाजार पर निर्भर होती है। ऐसा करके, मोदी बड़ी संख्या में ऐसे महत्वाकांक्षी भारतीयों को भाजपा के दायरे में लाए, जो दो दशकों से ज्यादा के आर्थिक सुधारों के दौर में अपने प्रयासों से आगे बढ़े हैं। यह समूह अब भाजपा का ‘आर्थिक दक्षिण पंथ’ बन गया है। अपने प्रयासों से ऊपर उठने के बाद वे कांग्रेस की रियायतें व तोहफे बांटने की वामपंथी कल्याणकारी नीतियों के कारण उत्तरोत्तर बेचैन होते जा रहे थे। इन लोगों में से कई भाजपा के हिंदुत्व को पसंद नहीं करते। मोदी ने आर्थिक दक्षिणपंथ के लिए स्थान बनाकर अपनी पार्टी के ‘आर्थिक दक्षिणपंथ’ और ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथ’ के बीच तनाव पैदा कर दिया है।

संकट कुछ माह पूर्व ‘लव जेहाद’ की बात के साथ शुरू हुआ, लेकिन भाजपा के उत्तरप्रदेश उपचुनाव हारते ही वह सब खत्म हो गया। फिर मुस्लिमों के खिलाफ संसद में योगी आदित्यनाथ की टिप्पणियां आईं। स्मृति ईरानी केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर संस्कृत लाने का प्रयास करने के मामले में मुश्किल में फंसीं। फिर साध्वी निरंजन ज्योति ने गैर-हिंदुओं की वैधता पर सवाल उठाया। भाजपा के एक अन्य सांसद महोदय ने महात्मा गांधी के हत्यारे को ‘देशभक्त’ बता दिया। राज्यसभा जिस बात से ठप हुई वह था राष्ट्रीय स्वयंसेवक का थोक धर्मांतरण का कार्यक्रम ‘घर वापसी’ और मोहन भागवत का यह बयान की भारत ‘हिंदू राष्ट्र’ है। साध्वी प्राची व अन्य नेताओं ने हिंदुओं के कितने बच्चे होने चाहिए, इस पर बयानबाजी शुरू कर दी।

अचानक भाजपा के आर्थिक एजेंडे के हिंदुत्व के सांस्कृतिक एजेंडे में डूब जाने का खतरा पैदा हो गया। हफ्तों तक राज्यसभा ठप रही और विपक्ष ने महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार रोककर सरकार को मुश्किल में डाल दिया। एक पल के लिए तो ‘शक्तिशाली’ मोदी, ‘कमजोर’ डॉ. मनमोहन सिंह जैसे दिखाई देने लगे। जिसे दुनियाभर में स्ट्रॉन्गमैन के रूप में स्वीकार किया गया हो उसका अचानक कमजोर दिखाई देना अजीब लगा। डॉ. सिंह इसी तरह तब कमजोर दिखाई दिए थे जब सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के ‘आंदोलनकारियों’ ने अजीब-सा और नुकसान पहुंचाने वाला भू-अधिग्रहण कानून बना डाला था। इससे भू-हस्तांतरण ठप हो गया और उद्योग, किसान व नौकरियों को बड़ा नुकसान हुआ। राजनीतिक दल तब चुनाव जीतते हैं जब वे उदारवादी मार्ग अपनाते हैं। चुनाव में मोदी की चमत्कारिक जीत का यही कारण है।

किंतु उनकी इस नीति ने पुराने अतिवादियों और वफादारों को असंतुष्ट कर दिया। सफल नेता जानता है कि उन्हें कैसे समायोजित किया जाए। रोनाल्ड रेगन ने अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के सांस्कृतिक गुट पर लगाम लगाकर रखी, क्योंकि वे अर्थव्यवस्था पर अनवरत फोकस बनाए रखना चाहते थे। रिपब्लिकन पार्टी के पिछले प्रत्याशी मिट रोमनी इसलिए नाकाम रहे, क्योंकि वे पार्टी के सांस्कृतिक दक्षिणपंथियों को पुचकारते रहे। इंग्लैंड में कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता डेविड कैमरन इस वक्त इसीलिए नाकाम हो रहे हैं, क्योंकि वे अपनी पार्टी के ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथी’ और उनकी यूरोप विरोधी नीति को संभाल नहीं पा रहे हैं। इसके विपरीत टोनी ब्लेयर लेबर पार्टी के वामपंथी यूनियनों और अतिवादियों को हाशिये पर डालने में सफल हुए थे। भारत में सोनिया गांधी अपने अतिवादियों को काबू में लाने में नाकाम रहीं। उन्होंने यूपीए-1 में वामपंथी सहयोगियों और यूपीए-2 में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के आंदोलनकारियों को सरकारी एजेंडा तय करने दिया।

मोदी को अच्छी तरह मालूम है कि लोगों ने उन्हें नौकरियां और आर्थिक तरक्की लाने के लिए वोट दिए हैं, इसीलिए उन्हें संघ परिवार के उच्छृंखल अतिवादियों को काबू करना ही होगा। यह आसान नहीं होगा, क्योंकि भविष्य के चुनावों के लिए उन्हें आरएसएस की पैदल सेना की जरूरत होगी। पर ऐसा वे पहले भी कर चुके हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में न सिर्फ उन्होंने आरएसएस बहुल मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया था बल्कि पूरे आरएसएस संगठन को हाशिये पर पहुंचा दिया था। संस्कृत में एक अद्‌भुत शब्द है ‘एकाग्रता’, जिसे पतंजलि ने अपने योग सूत्र में आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक बताया है। भौतिक प्रगति के लिए भी एक बिंदु पर एकाग्र होना जरूरी होता है।

आप सरकार में ‘िवकास’ की बात करके संगठन में ‘धर्मांतरण’ की चर्चा नहीं कर सकते। नौकरियां आएंगी यदि व्यवसाय करने के मामले में भारत मौजूदा 142वें स्थान से उठकर 50वें स्थान पर आ जाए, लेकिन इसके लिए सांस्थानिक परिवर्तन जरूरी होगा। भारत में कोई व्यवसाय शुरू करने के लिए 65 मंजूरियां जरूरी क्यों होनी चाहिए जब हमारे प्रतिस्पर्द्धियों के यहां 10 मंजूरियां ही काफी हैं? कर विभाग में हर दूसरा अधिकारी भ्रष्ट समझा जाता है। यह सब बदलने के लिए शीर्ष पर पूरी एकाग्रता जरूरी है।

आर्थिक सुधार शुरू होने के दो दशकों के बाद चुपके से सुधार लाना भारत के लिए अच्छा नहीं होगा। मोदी को अपने सुधार ‘गले उतारने’ होंगे खासतौर पर अपनी पार्टी के ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथियों’ के। उन्हें मनमोहन सिंह की गलती टालनी होगी, जो अपनी पार्टी यहां तक कि सोनिया गांधी तक का दृष्टिकोण बदलने में नाकाम रहे! अब जब सरकार ने अध्यादेश के जरिये बीमा व कोयला सुधारों की घोषणा कर ही दी है तो मोदी के सामने चुनौती उसके फायदों के बारे में लोगों को शिक्षित करने की है और फायदे काफी हैं। यदि वे राष्ट्रवादी दक्षिणपंथ की भाषा इस्तेमाल करते हैं तो उन्हें काफी मदद मिलेगी। उन्हें भारत के महान व्यापारिक भूतकाल की याद दिलानी चाहिए, जब रोज एक रोमन जहाज भारतीय बंदरगाह पर पहुंचता था। उन्हें अमूर्त शब्दों में बाजार की बात नहीं करनी चाहिए। उन्हें तो हम्पी के प्रसिद्ध बाजारों की बात करनी चाहिए। करों की निम्न दर को समझाने के लिए उन्हें ‘अर्थशास्त्र’ का सहारा लेना चाहिए, जहां राजधर्म ‘ शतभाग’ (या 15 फीसदी टैक्स दर) देने को कहता है।

‘आर्थिक दक्षिणपंथ’ अपने बूते चुनाव नहीं जीत सकता, क्योंकि चुनाव में मुक्त बाजार को गले उतारना मुश्किल है। जब हर व्यक्ति अपने हित को साधने में लग जाता है तो परोक्ष रूप से पूरे समाज को ही इसका फायदा पहुंचता है। महान अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने कहा है कि ‘अदृश्य हाथों’ से हर किसी को फायदा पहुंचता है। मुश्किल यह है कि मतदाता को यह हाथ नजर नहीं आता और इसीलिए वह आमतौर पर ऐसे लोक-लुभावन प्रत्याशी के फेर में पड़ जाता है, जो मुफ्त की बिजली और भोजन के वादे करता है।

‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथी’ भी अपने बूते चुनाव नहीं जीत सकते, क्योंकि उनके संदेश उदारवादी वोटर को अतिवादी लगते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के सामने काम स्पष्ट है- उन्हें सांस्कृतिक अतिवादियों की चिंताएं दूर करनी होगी और साथ ही उन्हें नौकरियां पैदा करने के एजेंडे पर पूरी एकाग्रता से लगे रहना होगा। हर पार्टी के अपने अतिवादी होते हैं और अच्छे नेता को उन पर काबू पाना होता है।