2014 का वर्ष भाजपा के लिए शानदार रहा! मोदी की बहुत बड़ी उपलब्धि ने उनकी पार्टी को सुसंगत आर्थिक नीति दी, जो रोजगार निर्मित करने और आर्थिक वृद्धि के लिए बाजार पर निर्भर होती है। ऐसा करके, मोदी बड़ी संख्या में ऐसे महत्वाकांक्षी भारतीयों को भाजपा के दायरे में लाए, जो दो दशकों से ज्यादा के आर्थिक सुधारों के दौर में अपने प्रयासों से आगे बढ़े हैं। यह समूह अब भाजपा का ‘आर्थिक दक्षिण पंथ’ बन गया है। अपने प्रयासों से ऊपर उठने के बाद वे कांग्रेस की रियायतें व तोहफे बांटने की वामपंथी कल्याणकारी नीतियों के कारण उत्तरोत्तर बेचैन होते जा रहे थे। इन लोगों में से कई भाजपा के हिंदुत्व को पसंद नहीं करते। मोदी ने आर्थिक दक्षिणपंथ के लिए स्थान बनाकर अपनी पार्टी के ‘आर्थिक दक्षिणपंथ’ और ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथ’ के बीच तनाव पैदा कर दिया है।
संकट कुछ माह पूर्व ‘लव जेहाद’ की बात के साथ शुरू हुआ, लेकिन भाजपा के उत्तरप्रदेश उपचुनाव हारते ही वह सब खत्म हो गया। फिर मुस्लिमों के खिलाफ संसद में योगी आदित्यनाथ की टिप्पणियां आईं। स्मृति ईरानी केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर संस्कृत लाने का प्रयास करने के मामले में मुश्किल में फंसीं। फिर साध्वी निरंजन ज्योति ने गैर-हिंदुओं की वैधता पर सवाल उठाया। भाजपा के एक अन्य सांसद महोदय ने महात्मा गांधी के हत्यारे को ‘देशभक्त’ बता दिया। राज्यसभा जिस बात से ठप हुई वह था राष्ट्रीय स्वयंसेवक का थोक धर्मांतरण का कार्यक्रम ‘घर वापसी’ और मोहन भागवत का यह बयान की भारत ‘हिंदू राष्ट्र’ है। साध्वी प्राची व अन्य नेताओं ने हिंदुओं के कितने बच्चे होने चाहिए, इस पर बयानबाजी शुरू कर दी।
अचानक भाजपा के आर्थिक एजेंडे के हिंदुत्व के सांस्कृतिक एजेंडे में डूब जाने का खतरा पैदा हो गया। हफ्तों तक राज्यसभा ठप रही और विपक्ष ने महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार रोककर सरकार को मुश्किल में डाल दिया। एक पल के लिए तो ‘शक्तिशाली’ मोदी, ‘कमजोर’ डॉ. मनमोहन सिंह जैसे दिखाई देने लगे। जिसे दुनियाभर में स्ट्रॉन्गमैन के रूप में स्वीकार किया गया हो उसका अचानक कमजोर दिखाई देना अजीब लगा। डॉ. सिंह इसी तरह तब कमजोर दिखाई दिए थे जब सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) के ‘आंदोलनकारियों’ ने अजीब-सा और नुकसान पहुंचाने वाला भू-अधिग्रहण कानून बना डाला था। इससे भू-हस्तांतरण ठप हो गया और उद्योग, किसान व नौकरियों को बड़ा नुकसान हुआ। राजनीतिक दल तब चुनाव जीतते हैं जब वे उदारवादी मार्ग अपनाते हैं। चुनाव में मोदी की चमत्कारिक जीत का यही कारण है।
किंतु उनकी इस नीति ने पुराने अतिवादियों और वफादारों को असंतुष्ट कर दिया। सफल नेता जानता है कि उन्हें कैसे समायोजित किया जाए। रोनाल्ड रेगन ने अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के सांस्कृतिक गुट पर लगाम लगाकर रखी, क्योंकि वे अर्थव्यवस्था पर अनवरत फोकस बनाए रखना चाहते थे। रिपब्लिकन पार्टी के पिछले प्रत्याशी मिट रोमनी इसलिए नाकाम रहे, क्योंकि वे पार्टी के सांस्कृतिक दक्षिणपंथियों को पुचकारते रहे। इंग्लैंड में कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता डेविड कैमरन इस वक्त इसीलिए नाकाम हो रहे हैं, क्योंकि वे अपनी पार्टी के ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथी’ और उनकी यूरोप विरोधी नीति को संभाल नहीं पा रहे हैं। इसके विपरीत टोनी ब्लेयर लेबर पार्टी के वामपंथी यूनियनों और अतिवादियों को हाशिये पर डालने में सफल हुए थे। भारत में सोनिया गांधी अपने अतिवादियों को काबू में लाने में नाकाम रहीं। उन्होंने यूपीए-1 में वामपंथी सहयोगियों और यूपीए-2 में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के आंदोलनकारियों को सरकारी एजेंडा तय करने दिया।
मोदी को अच्छी तरह मालूम है कि लोगों ने उन्हें नौकरियां और आर्थिक तरक्की लाने के लिए वोट दिए हैं, इसीलिए उन्हें संघ परिवार के उच्छृंखल अतिवादियों को काबू करना ही होगा। यह आसान नहीं होगा, क्योंकि भविष्य के चुनावों के लिए उन्हें आरएसएस की पैदल सेना की जरूरत होगी। पर ऐसा वे पहले भी कर चुके हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में न सिर्फ उन्होंने आरएसएस बहुल मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया था बल्कि पूरे आरएसएस संगठन को हाशिये पर पहुंचा दिया था। संस्कृत में एक अद्भुत शब्द है ‘एकाग्रता’, जिसे पतंजलि ने अपने योग सूत्र में आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक बताया है। भौतिक प्रगति के लिए भी एक बिंदु पर एकाग्र होना जरूरी होता है।
आप सरकार में ‘िवकास’ की बात करके संगठन में ‘धर्मांतरण’ की चर्चा नहीं कर सकते। नौकरियां आएंगी यदि व्यवसाय करने के मामले में भारत मौजूदा 142वें स्थान से उठकर 50वें स्थान पर आ जाए, लेकिन इसके लिए सांस्थानिक परिवर्तन जरूरी होगा। भारत में कोई व्यवसाय शुरू करने के लिए 65 मंजूरियां जरूरी क्यों होनी चाहिए जब हमारे प्रतिस्पर्द्धियों के यहां 10 मंजूरियां ही काफी हैं? कर विभाग में हर दूसरा अधिकारी भ्रष्ट समझा जाता है। यह सब बदलने के लिए शीर्ष पर पूरी एकाग्रता जरूरी है।
आर्थिक सुधार शुरू होने के दो दशकों के बाद चुपके से सुधार लाना भारत के लिए अच्छा नहीं होगा। मोदी को अपने सुधार ‘गले उतारने’ होंगे खासतौर पर अपनी पार्टी के ‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथियों’ के। उन्हें मनमोहन सिंह की गलती टालनी होगी, जो अपनी पार्टी यहां तक कि सोनिया गांधी तक का दृष्टिकोण बदलने में नाकाम रहे! अब जब सरकार ने अध्यादेश के जरिये बीमा व कोयला सुधारों की घोषणा कर ही दी है तो मोदी के सामने चुनौती उसके फायदों के बारे में लोगों को शिक्षित करने की है और फायदे काफी हैं। यदि वे राष्ट्रवादी दक्षिणपंथ की भाषा इस्तेमाल करते हैं तो उन्हें काफी मदद मिलेगी। उन्हें भारत के महान व्यापारिक भूतकाल की याद दिलानी चाहिए, जब रोज एक रोमन जहाज भारतीय बंदरगाह पर पहुंचता था। उन्हें अमूर्त शब्दों में बाजार की बात नहीं करनी चाहिए। उन्हें तो हम्पी के प्रसिद्ध बाजारों की बात करनी चाहिए। करों की निम्न दर को समझाने के लिए उन्हें ‘अर्थशास्त्र’ का सहारा लेना चाहिए, जहां राजधर्म ‘ शतभाग’ (या 15 फीसदी टैक्स दर) देने को कहता है।
‘आर्थिक दक्षिणपंथ’ अपने बूते चुनाव नहीं जीत सकता, क्योंकि चुनाव में मुक्त बाजार को गले उतारना मुश्किल है। जब हर व्यक्ति अपने हित को साधने में लग जाता है तो परोक्ष रूप से पूरे समाज को ही इसका फायदा पहुंचता है। महान अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने कहा है कि ‘अदृश्य हाथों’ से हर किसी को फायदा पहुंचता है। मुश्किल यह है कि मतदाता को यह हाथ नजर नहीं आता और इसीलिए वह आमतौर पर ऐसे लोक-लुभावन प्रत्याशी के फेर में पड़ जाता है, जो मुफ्त की बिजली और भोजन के वादे करता है।
‘सांस्कृतिक दक्षिणपंथी’ भी अपने बूते चुनाव नहीं जीत सकते, क्योंकि उनके संदेश उदारवादी वोटर को अतिवादी लगते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के सामने काम स्पष्ट है- उन्हें सांस्कृतिक अतिवादियों की चिंताएं दूर करनी होगी और साथ ही उन्हें नौकरियां पैदा करने के एजेंडे पर पूरी एकाग्रता से लगे रहना होगा। हर पार्टी के अपने अतिवादी होते हैं और अच्छे नेता को उन पर काबू पाना होता है।
3 comments:
Bilkul sahi kha aap ne. Modi should rein in his rabid colleagues.
The youth wants opportunity and progress. Religion and fanaticism is nowhere on their list.
Hope Modi takes a firm stance soon.
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