हमारे गणतंत्र के साथ कुछ बहुत ही गलत हो गया है। हाल ही में शुरू हुए संसद के मानसून सत्र पर अपशकुन के बादल मंडरा रहे हैं। सांसदों को हमारी नाजुक अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के बारे में गहरी चिंता होनी चाहिए, हर महीने 10 लाख रोजगार कैसे लाएं यह सोचना चाहिए और वे हैं कि अगले घोटाले के बारे में सोच रहे हैं। जहां विपक्षी सांसदों का ध्यान इस बात पर केंद्रित है कि संसद को कैसे ठप किया जाए, सत्ता पक्ष के सांसद घबराए खरगोशों की तरह भाग रहे हैं। दोनों भूल रहे हैं कि उन्हें क्यों निर्वाचित किया गया था।
जब संसद नहीं चल रही थी एक सांसद दुर्घटना-स्थल से भाग जाती है, जहां एक बच्ची की मौत हुई है, व्यापमं मुद्दे की जांच कर रहा पत्रकार मारा जाता है तो मंत्री उसे ‘मूर्खतापूर्ण’ मुद्दा बता देता है। चेन्नई मेट्रो में एक नेता यात्री को थप्पड़ लगा देता है और उत्तरप्रदेश में तो मंत्री असुविधाजनक लग रहे पत्रकार को जलाकर मार ही डालता है। इस बीच, शेष सारा राजनीतिक वर्ग लगभग तीन हफ्ते तक टीवी पर उत्तेजना के साथ नवीनतम सीरियल ‘ललित गेट’ के ताजे एपिसोड पर आंखें गड़ाए बैठा रहा। सीरियल का निर्देशक, पटकथा लेखक और हीरो कोई ललित मोदी था, जिसने दूर बैठकर दो मुख्य दलों के राजनेताओं और बेचारे खबरिया चैनलों की रैटिंग को अपने हिसाब से नचाया। अब इससे भी गंभीर और खतरनाक व्यापमं घोटाला उस पर हावी हो गया है। यह घोटाला भाजपा की प्रतिष्ठा को ज्यादा नुकसान पहुंचाएगा। कांग्रेस ने चेतावनी दे ही दी है कि जब तक सत्तारूढ़ दल के मंत्री इस्तीफा नहीं देते वह संसद के मानसून सत्र को अपनी अराजकता से पंगु बना देगी। किंतु भाजपा नेताओं की निगाहें बिहार के चुनाव पर हैं। वे नुकसान कम करने में लगे हैं।
निश्चित ही भारत बेहतर राजनीति का हकदार है। पहली बात तो यह है कि देश लगातार चुनाव के माहौल में ही रहता है और इससे महत्वपूर्ण सुधार और फैसलों में देरी हो जाती है। कैसे आधारभूत ढांचे का निर्माण करें या लालफीताशाही खत्म कर बिज़नेस करना आसान बनाए, इस पर बहस करने की बजाय भाजपा नेतृत्व सिर्फ बिहार चुनाव के पहले ललित गेट और व्यापमं से हुए नुकसान को नियंत्रित करने को लेकर ही चिंतित है। दूसरी बात, विपक्ष को भी राष्ट्रीय एजेंडा पटरी से नहीं उतारने दिया जाना चाहिए। भाजपा ने पिछली पर यही किया और अब कांग्रेस ‘जैसे को तैसा’ का वादा कर रही है। जब तक सांसद के रूप में मेरा वेतन दोगुना होता रहेगा, जनता जाए भाड़ में। जीएसटी लागू होने में विलंब या भू-अधिग्रहण कानून या बेरोजगार युवाओं की जिंदगी की किसे परवाह है। घर में बैठकर गुस्सा जताने की बजाय हमें अपने सांसदों से कुछ आसान से राजनीतिक सुधार लागू करने की मांग करनी चाहिए ताकि संसद व सरकार बेहतर ढंग से काम कर सकें।
दोनों सदनों के स्पीकर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं। उपद्रवी सांसदों को अनुशासित करने के लिए उन्हें अपने अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहिए। ब्रिटेन में आयरलैंड के सांसदों को मार्शलों से उठवाकर सड़क पर फेंक दिया जाता था। आखिर उन्हें अहसास हुआ कि यह सजा बहुत महंगी पड़ती है। दूसरी बात, हमें सांसदों को अधिक समय तक काम करने के लिए मजबूर करना चाहिए। जब ब्रिटिश संसद साल में 150 दिन और अमेरिकी कांग्रेस 200 दिन काम करती है तो भारतीय संसद वर्ष में सिर्फ 67 दिन ही क्यों काम करती है? हमारा मानसून सत्र तीन हफ्तों का ही क्यों होता है, तीन महीनों का क्यों नहीं? यदि दो-तिहाई सांसद चाहें तो संसद सत्र बुलाने की अनुमति क्यों नहीं होनी चाहिए, जैसा कि ब्रिटेन में होता है। विपक्ष को अपनी भड़ास निकालने का मौका दीजिए और फिर काम का एजेंडा तय कीजिए। ब्रिटेन में विपक्ष का नेता 150 में से 20 दिन का एजेंडा तय करता है।
तीसरी बात, भारत को भी तय अवधि वाली चुनाव पद्धति अपना लेनी चाहिए, जैसा कि ब्रिटेन ने हाल ही में किया है और अन्य लोकतंत्रों ने बहुत पहले ही कर लिया है। यह सरल-सा कदम चुनी हुई सरकार को बिना चुनाव की चिंता किए काम करने की सहूलियत देगा। इससे हमारी शासन पद्धति की क्षमता बढ़ेगी। संविधान ने पांच वर्ष की अवधि वाले चुनावी चक्र की कल्पना की है, लेकिन राज्य सरकारें तो पांच साल पूरे होने के पहले ही गिरती रही हैं और इससे पांच साल का चक्र टूट गया है। यदि सांसद-विधायकों की अवधि तय रहेगी तो वे बहुमत दल के नेता की मनमानी के बंधक नहीं बनेंगे। चुनाव दो तय तारीखों पर होंगे। हर पांच साल बाद केंद्र में और हर ढाई साल बाद राज्यों में। यदि अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिर गई तो सदन भंग नहीं होगा। विधायकों को नई सरकार बनाने के लिए मजबूर किया जाएगा या फिर उन्हें राष्ट्रपति शासन का सामना करना होगा।
चुनाव तिथियों की अनिश्चितता को दूर करने का विचार नया नहीं है। प्रशासनिक सुधार आयोग ने इसका सुझाव दिया था। लालकृष्ण आडवाणी ने इस खेद के साथ इसका समर्थन किया था कि देश के दूरदराज के क्षेत्र में होने वाला चुनाव भी दिल्ली में निर्णय प्रक्रिया को पंगु बना देता है। शरद पवार ने उत्साह से इसका स्वागत कर इसे एनसीपी के घोषणा-पत्र में भी शामिल कर लिया था। मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी को भी विचार पसंद था, लेकिन यूपीए ने इसे लागू नहीं किया, शायद इसलिए कि यह लालकृष्ण आडवाणी की ओर से आया था। अब नचिअप्पन समिति सुधारों का परीक्षण कर रही है। हालांकि, आडवाणी केंद्र व राज्यों में एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में थे, मुझे लगता है कि पांच वर्ष की अवधि के मध्य की अंतरिम तिथि खराब व खतरनाक सरकार के खिलाफ संरक्षण की दृष्टि से ठीक रहेगी।
चौथा सुधार यह हो कि मौजूदा ‘अविश्वास प्रस्ताव’ की जगह जर्मनी की तरह ‘रचनात्मक अविश्वास प्रस्ताव’ लाया जाना चाहिए। इसका मतलब है आप सरकार को तब गिरा सकते हैं , जब आपके पास इसका कोई विकल्प हो। इससे विधायकों व सांसदों में अधिक अनुशासन आएगा और सरकार को स्थिरता मिलेगी। पांचवां सुधार जनप्रतिनिधियों को खेल संस्थाओं से दूर रखने का हो। यदि जनप्रतिनिधि चुने जाते ही खेल संस्था से इस्तीफा देने का कानून होता तो ललित गेट नहीं होता। आखिर में सफल लोकतंत्र तो वही है, जो लोगों की जरूरतों के मुताबिक विकसित होता रहे। अब वक्त आ गया है कि हम सांसदों-विधायकों की आंखों में आंखें डालकर उन्हें याद दिलाएं कि हमने उन्हें क्यों चुना है। उनसे काम करने की अपेक्षा है, लोगों का पैसा व वक्त बरबाद करने की नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे जनसमर्थन को यूं ही मानकर न चलें।
जब संसद नहीं चल रही थी एक सांसद दुर्घटना-स्थल से भाग जाती है, जहां एक बच्ची की मौत हुई है, व्यापमं मुद्दे की जांच कर रहा पत्रकार मारा जाता है तो मंत्री उसे ‘मूर्खतापूर्ण’ मुद्दा बता देता है। चेन्नई मेट्रो में एक नेता यात्री को थप्पड़ लगा देता है और उत्तरप्रदेश में तो मंत्री असुविधाजनक लग रहे पत्रकार को जलाकर मार ही डालता है। इस बीच, शेष सारा राजनीतिक वर्ग लगभग तीन हफ्ते तक टीवी पर उत्तेजना के साथ नवीनतम सीरियल ‘ललित गेट’ के ताजे एपिसोड पर आंखें गड़ाए बैठा रहा। सीरियल का निर्देशक, पटकथा लेखक और हीरो कोई ललित मोदी था, जिसने दूर बैठकर दो मुख्य दलों के राजनेताओं और बेचारे खबरिया चैनलों की रैटिंग को अपने हिसाब से नचाया। अब इससे भी गंभीर और खतरनाक व्यापमं घोटाला उस पर हावी हो गया है। यह घोटाला भाजपा की प्रतिष्ठा को ज्यादा नुकसान पहुंचाएगा। कांग्रेस ने चेतावनी दे ही दी है कि जब तक सत्तारूढ़ दल के मंत्री इस्तीफा नहीं देते वह संसद के मानसून सत्र को अपनी अराजकता से पंगु बना देगी। किंतु भाजपा नेताओं की निगाहें बिहार के चुनाव पर हैं। वे नुकसान कम करने में लगे हैं।
निश्चित ही भारत बेहतर राजनीति का हकदार है। पहली बात तो यह है कि देश लगातार चुनाव के माहौल में ही रहता है और इससे महत्वपूर्ण सुधार और फैसलों में देरी हो जाती है। कैसे आधारभूत ढांचे का निर्माण करें या लालफीताशाही खत्म कर बिज़नेस करना आसान बनाए, इस पर बहस करने की बजाय भाजपा नेतृत्व सिर्फ बिहार चुनाव के पहले ललित गेट और व्यापमं से हुए नुकसान को नियंत्रित करने को लेकर ही चिंतित है। दूसरी बात, विपक्ष को भी राष्ट्रीय एजेंडा पटरी से नहीं उतारने दिया जाना चाहिए। भाजपा ने पिछली पर यही किया और अब कांग्रेस ‘जैसे को तैसा’ का वादा कर रही है। जब तक सांसद के रूप में मेरा वेतन दोगुना होता रहेगा, जनता जाए भाड़ में। जीएसटी लागू होने में विलंब या भू-अधिग्रहण कानून या बेरोजगार युवाओं की जिंदगी की किसे परवाह है। घर में बैठकर गुस्सा जताने की बजाय हमें अपने सांसदों से कुछ आसान से राजनीतिक सुधार लागू करने की मांग करनी चाहिए ताकि संसद व सरकार बेहतर ढंग से काम कर सकें।
दोनों सदनों के स्पीकर अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं। उपद्रवी सांसदों को अनुशासित करने के लिए उन्हें अपने अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहिए। ब्रिटेन में आयरलैंड के सांसदों को मार्शलों से उठवाकर सड़क पर फेंक दिया जाता था। आखिर उन्हें अहसास हुआ कि यह सजा बहुत महंगी पड़ती है। दूसरी बात, हमें सांसदों को अधिक समय तक काम करने के लिए मजबूर करना चाहिए। जब ब्रिटिश संसद साल में 150 दिन और अमेरिकी कांग्रेस 200 दिन काम करती है तो भारतीय संसद वर्ष में सिर्फ 67 दिन ही क्यों काम करती है? हमारा मानसून सत्र तीन हफ्तों का ही क्यों होता है, तीन महीनों का क्यों नहीं? यदि दो-तिहाई सांसद चाहें तो संसद सत्र बुलाने की अनुमति क्यों नहीं होनी चाहिए, जैसा कि ब्रिटेन में होता है। विपक्ष को अपनी भड़ास निकालने का मौका दीजिए और फिर काम का एजेंडा तय कीजिए। ब्रिटेन में विपक्ष का नेता 150 में से 20 दिन का एजेंडा तय करता है।
तीसरी बात, भारत को भी तय अवधि वाली चुनाव पद्धति अपना लेनी चाहिए, जैसा कि ब्रिटेन ने हाल ही में किया है और अन्य लोकतंत्रों ने बहुत पहले ही कर लिया है। यह सरल-सा कदम चुनी हुई सरकार को बिना चुनाव की चिंता किए काम करने की सहूलियत देगा। इससे हमारी शासन पद्धति की क्षमता बढ़ेगी। संविधान ने पांच वर्ष की अवधि वाले चुनावी चक्र की कल्पना की है, लेकिन राज्य सरकारें तो पांच साल पूरे होने के पहले ही गिरती रही हैं और इससे पांच साल का चक्र टूट गया है। यदि सांसद-विधायकों की अवधि तय रहेगी तो वे बहुमत दल के नेता की मनमानी के बंधक नहीं बनेंगे। चुनाव दो तय तारीखों पर होंगे। हर पांच साल बाद केंद्र में और हर ढाई साल बाद राज्यों में। यदि अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिर गई तो सदन भंग नहीं होगा। विधायकों को नई सरकार बनाने के लिए मजबूर किया जाएगा या फिर उन्हें राष्ट्रपति शासन का सामना करना होगा।
चुनाव तिथियों की अनिश्चितता को दूर करने का विचार नया नहीं है। प्रशासनिक सुधार आयोग ने इसका सुझाव दिया था। लालकृष्ण आडवाणी ने इस खेद के साथ इसका समर्थन किया था कि देश के दूरदराज के क्षेत्र में होने वाला चुनाव भी दिल्ली में निर्णय प्रक्रिया को पंगु बना देता है। शरद पवार ने उत्साह से इसका स्वागत कर इसे एनसीपी के घोषणा-पत्र में भी शामिल कर लिया था। मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी को भी विचार पसंद था, लेकिन यूपीए ने इसे लागू नहीं किया, शायद इसलिए कि यह लालकृष्ण आडवाणी की ओर से आया था। अब नचिअप्पन समिति सुधारों का परीक्षण कर रही है। हालांकि, आडवाणी केंद्र व राज्यों में एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में थे, मुझे लगता है कि पांच वर्ष की अवधि के मध्य की अंतरिम तिथि खराब व खतरनाक सरकार के खिलाफ संरक्षण की दृष्टि से ठीक रहेगी।
चौथा सुधार यह हो कि मौजूदा ‘अविश्वास प्रस्ताव’ की जगह जर्मनी की तरह ‘रचनात्मक अविश्वास प्रस्ताव’ लाया जाना चाहिए। इसका मतलब है आप सरकार को तब गिरा सकते हैं , जब आपके पास इसका कोई विकल्प हो। इससे विधायकों व सांसदों में अधिक अनुशासन आएगा और सरकार को स्थिरता मिलेगी। पांचवां सुधार जनप्रतिनिधियों को खेल संस्थाओं से दूर रखने का हो। यदि जनप्रतिनिधि चुने जाते ही खेल संस्था से इस्तीफा देने का कानून होता तो ललित गेट नहीं होता। आखिर में सफल लोकतंत्र तो वही है, जो लोगों की जरूरतों के मुताबिक विकसित होता रहे। अब वक्त आ गया है कि हम सांसदों-विधायकों की आंखों में आंखें डालकर उन्हें याद दिलाएं कि हमने उन्हें क्यों चुना है। उनसे काम करने की अपेक्षा है, लोगों का पैसा व वक्त बरबाद करने की नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे जनसमर्थन को यूं ही मानकर न चलें।
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