Monday, August 25, 2014

उम्मीद जगाने वाले 10 कदम

हम सब स्वतंत्रता दिवस पर नरेंद्र मोदी के भाषण से बहुत प्रभावित हुए। जवाहरलाल नेहरू के बाद से हमने लाल किले से ऐसा ताजगीभरा, उत्साह बढ़ाने वाला और ईमानदारी जाहिर करता भाषण नहीं सुना। मोदी हिंदू राष्ट्रवादी की तरह नहीं, भारतीय राष्ट्रवादी की तरह बोले। आदर्शवाद की ऊंची-ऊंची बातें नहीं कीं, कोई बड़ी नीतिगत घोषणाएं नहीं कीं और न खैरात बांटीं। आमतौर पर हमारे नेता बताते हैं कि वे हमें क्या देने वाले हैं। उन्होंने बताया कि हमें कौन-सी चीजें राष्ट्र को देनी चाहिए।
मोदी की शैली को वर्णित करने के लिए श्रेष्ठ शब्द हैं, व्यावहारिक, तथात्मक, गैर-आदर्शवादी और कार्यक्षम। वे नई नीतियों की घोषणा की बजाय नीतियों को अमल में लाने पर अधिक जोर देते हैं। जिन लोगों को बजट में धमाकेदार सुधारों की अपेक्षा थी, उन्हें निराशा हाथ लगी और जिन्हें असहिष्णु हिंदू तानाशाही के पुनरुत्थान की आशंका थी, वे आश्वस्त हुए हैं।
कांग्रेस ने हमें याद दिलाया कि मोदी सरकार तो सिर्फ यूपीए सरकार के एजेंडे की नकल कर रही है। अच्छे विचारों की नकल करना कोई बुरी बात नहीं है, यदि आप उन्हें अमल में लाकर दिखाएं। यूपीए सरकार के पास कई बेहतरीन विचार थे, लेकिन वह उन्हें अमल में लाने में नाकाम रही। मनमोहन सिंह वाकई आधारभूत ढांचे के क्षेत्र में बहुत कुछ करना चाहते थे, लेकिन उनमें अमल में लाने की काबिलियत नहीं थी।
यूपीए ने ‘वित्तीय समावेश’ का शोर तो बहुत मचाया पर इस दिशा में बहुत कम हासिल कर दिखाया। मुझे लगता है कि मोदी सरकार यह कर दिखाएगी। नौकरशाही के विरोध के बावजूद मोदी ने समझदारी दिखाकर यूपीए की आधार योजना को स्वीकार कर लिया। मोबाइल से भुगतान को जोड़ने वाली यह बायोमेट्रिक प्रणाली जल्द ही हर भारतीय को बैंक खाता खोलने में मददगार होगी। गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को सब्सिडी की राशि नगद मिलेगी। इससे भ्रष्टाचार थमेगा।
सरकार का फोकस ‘बातें करने’ की बजाय ‘करने’ में है, इसके दस उदाहरण दिए जा सकते हैं। नजर आने वाला सबसे बड़ा परिवर्तन तो केंद्रीय नौकरशाही में पैदा हुआ आशावाद है। दिल्ली में बाबू लोग दफ्तरों में जल्दी आने लगे हैं, यह दूसरा बदलाव है। जनता को मिलने का समय जल्दी मिल रहा है, अधिकारियों का रवैया अधिक सहयोगभरा है, बैठकें वक्त पर शुरू हो रही हैं, कुछ तो जल्दी सुबह 9 बजे ही हो जाती हैं। तीसरा उदाहरण केरल की नर्सों को इराकी युद्ध क्षेत्र से 48 घंटों के भीतर घर लौटा लाने का है। इसने प्रशासन में नए पेशेवर अंदाज के दर्शन कराए।
चौथा, बरसों से ठप पड़ी परियोजनाओं को मंजूरी देने में दिखाया जा रहा उत्साह और ऊर्जा है। पांचवां, पड़ोसियों से रिश्ते सुधारने की दिशा में विदेश मंत्रालय में दिखाई जा रही सोदेश्यता व जोश है। यह हमारी बाहरी सुरक्षा का रूपांतरण कर सकता है। छठा, जन्म प्रमाण-पत्र, अंक सूची और इस जैसे अन्य दस्तावेजों के स्व-प्रमाणीकरण (सेल्फ अटेस्टेशन) की तरफ चुपचाप बदलाव। गांव में रहने वाली किसी गरीब विधवा को होने वाले फायदे की कल्पना कीजिए, जिसे पड़ोस के शहर में किसी अफसर से मिलने के लिए चक्कर लगाने पड़ते और आखिर में अपना काम कराने के लिए किसी दलाल या नोटरी को पैसे देने पड़ते थे। मूल दस्तावेजों की अंतिम चरण में जरूरत होगी, पर मीलों लंबा लाल फीता काट दिया गया है ।
सातवां कदम तीन प्रमुख श्रम सुधार हैं। हालांकि, इस मामले में केंद्र सरकार उतनी आगे नहीं गई है, जितनी राजस्थान सरकार, लेकिन इसने श्रम सुधारों की दिशा में दरवाजें खोल दिए हैं। इन सुधारों से हमारे आधे कारखानों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। कर्मचारियों का ज्यादा फायदा होगा और बिज़नेस करना आसान हो जाएगा। प्रशिक्षु रखने के खिलाफ भयानक कानून के खात्मे से कंपनियों के लिए प्रशिक्षु हासिल करना आसान बना देगा। इससे रोजगार देने वाले प्रवासियों खासतौर पर गांव से आने वाले लोगों को प्रशिक्षण देने के लिए प्रोत्साहित होंगे।
आठवां, श्रम मंत्रालय में इन्सपेक्शन को लेकर नए नियमों ने तो ‘इंस्पेक्टर राज’ पर चुपचाप प्रहार किया है। हम सब जानते हैं कि इंस्पेक्टर छोटी उत्पादन इकाइयों को परेशान करते हैं, लेकिन अब उन्हें ऊपर से अनुमति लेनी होगी और अपनी टिप्पणियां वेबसाइट पर डालनी होंगी। भ्रष्ट लेबर इंस्पेक्टर रातोंरात तो नहीं बदल जाएगा पर उसके व्यवहार पर अब कड़ा नियंत्रण होगा।
नौवां, सरकार ने भारतीय खाद्य निगम के गोदामों से अनाज बेचना शुरू कर दिया है और इससे बाजार में अनाज के दाम गिरने लगे हैं। दसवां, महंगाई से निपटने की एक पहल बजट में कृषि उपज विपणन समितियों द्वारा संचालित मंडियों का एकाधिकार तोड़ने संबंधी घोषणा है। इस पहल से आढ़तियों और थोक व्यापार के मठाधीशों में भय पैदा हुआ है, जिनके एकाधिकारवादी कमीशन अनाज की बढ़ती कीमतों के लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार है। शीतगृहों की शृंखला निर्मित करने के निर्णय से किसानों को फायदा मिलेगा और उपभोक्ता के लिए कीमतें कम होंगी। केंद्र की ओर से किसान समर्थन मूल्य की सीमा तय करने का फैसला भी उत्साहवर्द्धक है। विडंबना यह है कि इससे भाजपा शासित मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ को ही सबसे ज्यादा चोट पहुंची है, जहां किसानों के वोट हासिल करने के लिए उन्हें जरा ज्यादा ही प्रीमियम दिया जा रहा था।
भारतीयों ने नरेंद्र मोदी को नौकरियां बढ़ाने, महंगाई घटाने और सुशासन के उनके वादे के कारण चुना है। उन्होंने लाखों नौकरियां निर्मित करने का वादा किया था। निवेश आने लगा है। निवेशकों में भरोसा पैदा होने से पूंजी बाजार में उछाल आया है। निर्माण क्षेत्र में रौनक लौटी है। यानी मोदी ने रोजगार बढ़ाने की दिशा में अच्छी शुरुआत की है।
महंगाई घटाने की बात है तो ऊपर बताए नौवें व दसवें महंगाई से लड़ने वाले ही कदम हैं। हालांकि, उन्हें और आगे जाने की जरूरत है। देश को परंपरा स्थापित कर देनी चाहिए कि कुछ जीवन आवश्यक चीजों की कीमतें यदि नाजायज तरीके से बढ़ रही हैं तो उनका नियमित रूप से आयात किया जाए। इससे आपूर्ति सुनिश्चित कर खाद्य पदार्थों में महंगाई से निपटने का सरकार का संकल्प जाहिर होगा। सबसे बड़ी बात, मोदी को सरकारी खर्च (खासतौर पर सब्सिडी) में कटौती करनी होगी, जो महंगाई का महत्वपूर्ण कारण है।
और आखिर में, मोदी ने ‘छोटी सरकार, बड़ा शासन’ का वादा किया था। इस मोर्चे पर उन्होंने कितना काम किया है? ऊपर बताए 1,2,6 और 7वें कदम सुशासन को लक्षित है। मोदी लोगों की अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे या नहीं, इस बारे में कुछ कहना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन उन्होंने बिना बड़ी गलतियां किए अच्छी शुरुआत तो कर ही दी है।

Friday, August 15, 2014

बदलाव की बड़ी तस्वीर

मोदी सरकार को सत्ता में आए करीब ढाई माह हो चुके हैं। इतने कम समय में किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचना अभी बहुत जल्दबाजी होगी, लेकिन बदलाव के संकेत दिखने लगे हैं और एक बड़ी तस्वीर स्पष्ट होने लगी है। हां, इतना अवश्य है कि जहां लोगों को आमूलचूल बड़े परिवर्तन की अपेक्षा थी वहां निरंतरता पर आधारित छोटे-छोटे बदलाव नजर आ रहे हैं। बजट में बहुत बड़े बदलाव की अपेक्षा पाले बैठे लोगों को भी कुछ निराशा हुई है। इसी तरह जो लोग अनुदार हिंदू तानाशाही के उभार का डर पाले हुए थे वे ऐसा कुछ न होने के प्रति आश्वस्त हुए हैं। प्रधानमंत्री न तो अधिक तेजी से अपने प्रशंसकों की तमाम बड़ी अपेक्षाओं को पूरा कर सकते हैं और न ही अपने दुश्मनों के डर को समूल खत्म कर सकते हैं। इससे पता चलता है कि भारत में किस तरह सत्ता का संचालन होता है। इस निरंतरता की सकारात्मक व्याख्या यही है कि यह भारतीय राज्य के दिनोंदिन अधिक परिपक्व होने को दर्शाता है। इसका नकारात्मक पहलू यह है कि मोदी भी शासन में रातोंरात बड़ा बदलाव शायद नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री ने स्वयं भी इससे अपनी मौन सहमति जताई है। वह अधूरे पड़े कामों को पूरा करने में जुटे हैं और यह कोई खराब बात नहीं है। जैसा कि वह कहते भी हैं कि काम करने वाले ज्यादा बोलते नहीं।

इस सरकार द्वारा किए गए थोड़े बहुत किए गए कार्य यही बताते हैं कि मोदी सरकार का मंत्र मौन क्रियान्वयन है। इस संदर्भ में जो महत्वपूर्ण बदलाव हुआ है वह केंद्रीय नौकरशाही के रुख-रवैये से संबंधित है। रिपोर्ट बताती हैं कि वही पुराने अफसर आम लोगों से अधिक आसानी से मिल रहे हैं, उनके फोन उठा रहे हैं और काम कर रहे हैं। समय पर मीटिंग हो रही हैं और यहां तक कि सुबह के नौ बजे भी अधिकारी बैठक कर रहे हैं। इराक में युद्ध क्षेत्र से जिस तरह 48 घंटों के भीतर केरल की नसरें को वापस उनके घर पहुंचाया गया वह प्रशासन के नए तौर तरीकों को दर्शाता है। दूसरा काम बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं में तेजी दिखाने का है, जिससे नए रोजगार अवसरों के सृजन की शुरुआत हुई है। तीसरा संकेत विदेश मंत्रालय में आए नए उत्साह और उद्देश्यपरकता का है। पड़ोसी देशों से संबंध सुधारे जा रहे हैं, जिससे हमारी सुरक्षा सुदृढ़ होगी। नेपाल, बांग्लादेश और भूटान के लोगों का नजरिया भारत के प्रति बदला है। इसी तरह एक और बड़ा प्रशासनिक बदलाव लोगों को प्रमाणपत्रों के प्रशासनिक अधिकारियों के द्वारा सत्यापन से निजात दिलाना है। अब जन्म प्रमाणपत्र, अंकपत्र आदि के सत्यापन के लिए राजपत्रित अधिकारियों के हस्ताक्षर अथवा नोटरी से हलफनामे की आवश्यकता नहीं होगी। आप गांवों में रहने वाली उन विधवाओं के बारे में कल्पना कीजिए जो सरकारी लाभ पाने के लिए एक अधिकारी से हस्ताक्षर कराने के लिए पूरे दिन यात्रा करने को विवश होती हैं और इसके लिए अंतत: उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है। वास्तविक दस्तावेजों की आवश्यकता अब भी होगी, लेकिन लालफीताशाही खत्म होगी और ब्रिटिश राज की औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति मिलेगी।

इस क्त्रम में श्रम से संबंधित तीन बड़े सुधार किए गए हैं। हालांकि सरकार द्वारा इस दिशा में उठाए गए कदम पर्याप्त नहीं हैं, लेकिन इससे श्रम कानून में सुधार का रास्ता खुला है। इन सुधारों से कर्मचारी लाभान्वित होंगे और उद्योग-व्यापार कार्य अधिक आसान बनेगा। कंपनियों को नए कर्मचारियों की भर्ती करने में आसानी होगी और नियोक्ता नए लोगों को कौशल प्रशिक्षण देने के लिए प्रोत्साहित होंगे, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। इसी तरह निरीक्षणों के संबंध में श्रम मंत्रालय के नए कानूनों से छोटी विनिर्माण इकाइयों को श्रम निरीक्षकों के भय से निजात मिलेगी। हमारे निरीक्षकों को याद होना चाहिए कि यह प्रणाली 1880 में अपनाई गई थी। उस समय निरीक्षण के दो प्रकार थे। एक संदिग्ध के खिलाफ, जिसमें उसकी खामियों-कमियों को खोजा जाता था ताकि उन्हें ठीक किया जा सके। दूसरा काम मित्रवत मार्गदर्शन का था, जिसकी सदिच्छा चीजों को ठीक करने की होती थी। यह सही है कि भ्रष्ट श्रम निरीक्षक रातोंरात बदल नहीं जाएंगे, लेकिन उनके व्यवहार को अब कड़ाई से नियंत्रित अवश्य किया जा सकता है। जहां तक महंगाई की बात है तो सरकार ने एफसीआइ के गोदामों में पड़े 50 लाख से एक करोड़ टन खाद्यान्नों को बेचने की बात कही है। महज इसकी घोषणा से बाजार में खाद्यान्न कीमतों में गिरावट आ गई। इस कदम को दूसरी अन्य महत्वपूर्ण चीजों के मामले में भी अपनाया जा सकता है। सब्जियों के मामले में भी अधिक तेजी से हवाई जहाजों के माध्यम से रणनीतिक आयात के द्वारा सरकार आपूर्ति बढ़ाकर महंगाई को नियंत्रण में ला सकती है। कृषि उत्पाद बाजार समितियों अथवा एपीएमसी के एकाधिकार को खत्म करने के लिए निजी किसान मंडियों का सहारा लिया जा सकता है। बजट में शीतभंडारण गृहों की श्रृंखला स्थापित करने की बात कही गई है, इससे किसानों को लाभ होगा और उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत में कमी आएगी।

संप्रग सरकार के समय में शुरू की गई आधार योजना अधिक तर्कसंगत बनाने की बात कही गई है, जो अच्छा कदम है। भुगतान के लिए बायोमीट्रिक तकनीक को मोबाइल फोन से जोड़े जाने से हजारों करोड़ की बचत होगी। इस तरह जवाबदेह प्रशासनिक कामकाज से आम लोगों को लाभ होगा। कुछ नकारात्मक बातें भी हुई हैं। मेरे विचार से डब्ल्यूटीओ वार्ता में भारत को विघ्नकर्ता की भूमिका नहीं निभानी चाहिए। भारत कृषि का बड़ा निर्यातक देश है और यह हमारे हित में है कि लालफीताशाही कम हो और सीमा शुल्क संबंधी औपचारिकताएं तर्कसंगत हों। भारत कमजोर बहुपक्षीय प्रणाली को कमतर आंक रहा है, जिससे अंतत: हमें ही सर्वाधिक लाभ होना है। कुल मिलाकर मोदी सरकार के कामों और उनकी कार्यशैली को देखते हुए हम कह सकते हैं कि नया मंत्र मौन क्रियान्वयन है। बहुत अधिक बातें और काम बहुत थोड़ा करने वाले हमारे देश में यह कार्यप्रणाली एक ताजी हवा की तरह है। जो लोग 15 अगस्त को प्रधानमंत्री से एक दूरदर्शी भाषण की अपेक्षा कर रहे हैं उनका इंतजार आज खत्म होगा।

Sunday, August 03, 2014

Two months on, mantra’s clear: Less talk, more action

It’s been a little over two months since the Modi sarkar came to power. Too soon, perhaps, for a definitive assessment, but there are signs of change; patterns are emerging; and even hints of a larger picture. Where we had expected discontinuity there is surprising continuity. This may say something about the evolution of authority, a maturing of the Indian state. Those who expected big bang reforms are disappointed and those who feared an intolerant autocracy are reassured. Modi himself has been remarkably silent. He has been busy getting things done — those who act often say little. Here is a brief inventory with positive and negative examples.

The most palpable change is an upbeat mood in the central bureaucracy. No straggling in at 11 am. There are reports of quick appointments to the public; the same arrogant officer comes on the phone line, and is more helpful; meetings begin on time, some as early as 9 am. The manner in which nurses from Kerala were brought home from Iraq’s war zone in 48 hours showed a new professionalism. Another change is the quiet way that infrastructure projects have got going and begun to create jobs. There is a sense of purpose and vigour in repairing relations with our neighbours that could transform our security.

The noiseless shift to self-attestation is a major administrative reform. Documents — such as birth certificates, mark sheets etc — no longer require to be attested by gazetted officers or affidavits by notaries. Imagine the benefit to a poor village widow who travelled a whole day to find an officer and finally ended up paying a tout or a notary. Original papers are still needed but miles of red tape have been cut, and a 150-year-old process decolonized.

Three archaic labour laws are about to be scrapped, enhancing employee benefits and making it easier to do business. New rules on inspections have also struck a quiet blow against the dreaded inspector raj. Merely the announcement that five to ten million tons of grain from the FCI stockpile will be sold has reduced grain prices. Tactically importing a few planeloads of vegetables will underline the resolve to fight food inflation through augmenting supply. The announcement to break the monopoly of the feared Agricultural Produce Marketing Committees (APMCs) through private mandis is also antiinflationary and has instilled fear among wholesale warlords. So is the courageous cap on farmer support prices that has offended both BJP-ruled MP and Chhattisgarh.

The pragmatic restoration of Aadhar, despite the BJP’s and the bureaucracy’s hostility, is an example of continuity. This biometric technology linked to payments through mobile phones will save thousands of crores and lead to clean, accountable governance while easing the aam aadmi’s life. With its focus on implementation, this government will fix its minor glitches and cover the whole country in two years. Now to a few negatives. India should not have played ‘spoiler’ in the recent WTO talks. India is a major agriculture exporter and it is in our interest to cut red tape and harmonize customs formalities. By insisting on linking trade facilitation to food security issues, India has undermined the fragile multilateral system that benefits India the most. By not applying its mind, the Modi government became a victim of bureaucratic capture.

While it is virtuous to act rather than speak, Modi should have spoken boldly in the recent spate of Hindutva incidents. He should have countered the Goa minister’s claim — India is not a Hindu rashtra, which is why it is different from Pakistan; condemned the Shiv Sena goons for force-feeding a Muslim during Ramzan; and publicly distanced himself from the vision of ‘akhand Bharat’ in Batra’s textbooks that risk undoing his government’s fine work in building trust with our neighbours.

This is not an exhaustive list but it points to a mantra of quiet execution, which matters in a country with too much talk and too little action. Those expecting visionary statements should wait for August 15.