Wednesday, July 31, 2019

गरीबी हटाओ की नहीं, अमीरी लाओ की जरूरत

दैनिक भास्कर | 25 जुलाई 2019

कुछ दिनों पहले रविवार की रात एक टीवी शो
में एंकर ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 5
लाख करोड़ डॉलर के जीडीपी के लक्ष्य का तिरस्कारपूर्व
बार-बार उल्लेख किया। यह शो हमारे शहरों के दयनीय
पर्यावरण पर था और एंकर का आशय आर्थिक प्रगति
को बुरा बताने का नहीं था, लेकिन ऐसा ही सुनाई दे रहा
था। जब इस ओर एंकर का ध्यान आकर्षित किया गया
तो बचाव में उन्होंने कहा कि भारत की आर्थिक वृद्धि तो
होनी चाहिए पर पर्यावरण की जिम्मेदारी के साथ। इससे
कोई असहमत नहीं हो सकता पर दर्शकों में आर्थिक
वृद्धि के फायदों को लेकर अनिश्चतता पैदा हो गई होगी।


कई लोगों ने बजट में पेश नीतियों व आंकड़ों को
देखते हुए इस साहसी लक्ष्य पर संदेह व्यक्त किया है।
मोदी ने अपने आलोचकों को 'पेशेवर निराशावादी'
बताया है। किसी लक्ष्य की आकांक्षा रखने को मैं राष्ट्र
के लिए बहुत ही अच्छी बात मानता हूं। जाहिर है कि
मोदी 2.0 सरकार नई मानसिकता से चल रही है। यह
खैरात बांटने की 'गरीबी हटाओ' मानसिकता से हटकर
खुशनुमा बदलाव है। राहुल गांधी ने जब मोदी 1.0 पर
सूट-बूट की सरकार होने का तंज कसा था तो वह 'गरीबी
हटाओ' से ग्रस्त हो गई थी और इसके कारण हाल के
आम चुनाव में इस मामले में नीचे गिरने की होड़ ही मच
गई थी। इस लक्ष्य ने आर्थिक वृद्धि की मानसिकता को
बहाल किया है, इसीलिए मोदी 2014 में चुने गए थे।
चीन में देंग शियाओ पिंग की मिसाल रखते हुए मैं तो
मोदी 2.0 के लिए 'न सिर्फ गरीबी हटाओ बल्कि अमीरी
लाओ' के नारे का सुझाव दूंगा। 'सूट-बूट' के प्रति
सुधारवादी प्रधानमंत्री का सही उत्तर यह होना चाहिए,
'हां, मैं हर भारतीय से चाहता हूं कि वह मध्यवर्गीय
सूट बूट की जीवनशैली की आकांक्षा रखे'। जीडीपी
का मतलब है ग्रॉस डेवलपमेंट प्रोडक्ट (सकल घरेलू
उत्पाद)। यह मोटेतौर पर किसी अर्थव्यवस्था की कुल
संपदा दर्शाता है। इसे औद्योगिक युग में अर्थशास्त्रियों ने
ईजाद किया था और इसकी अपनी सीमाएं हैं। आज कई
लोग पर्यावरण हानि के लिए आर्थिक वृद्धि को दोष देते
हैं। वे चाहते हैं कि सरकार धन का पीछा छोड़ लोगों
की परवाह करना शुरू करे। लेकिन, यथार्थ तो यही है
कि जीडीपी नीति-निर्माताओं के लिए श्रेष्ठतम गाइड है।
हाल के वर्षों में आर्थिक वृद्धि ने दुनियाभर में एक अरब
से ज्यादा लोगों को घोर गरीबी से उबारा है।


केवल आर्थिक वृद्धि से ही किसी समाज में जॉब
पैदा होते हैं। सरकार को टैक्स मिलता है ताकि वह शिक्षा
(जो अवसर व समानता लाती है) और हेल्थकेयर
(जिससे पोषण सुधरता है, बाल मृत्युदर घटती है और
लोग दीर्घायु होते हैं) पर खर्च कर सके। मसलन, भारत
में आर्थिक वृद्धि ने ग्रामीण घरों में सब्सिडी वाली रसोई
गैस पहुंचाई ताकि वे घर में कंडे व लकड़ी जलाने से
होने वाले प्रदूषण से बच सकें। 1990 में प्रदूषण का
यह भीषण रूप दुनियाभर में 8 फीसदी मौतों के लिए
जिम्मेदार था। वृद्धि और समृद्धि आने से यह आंकड़ा
करीब आधा हो गया है। जब गरीब राष्ट्र विकसित होने
लगते हैं तो बाहर का प्रदूषण तेजी से बढ़ता है पर
समृद्धि आने के साथ प्रदूषण घटने लगता है और उसके
पास इसे काबू में रखने के संसाधन भी होते हैं। अचरज
नहीं कि प्रतिव्यक्ति ऊंची जीडीपी वाले राष्ट्र मानव
विकास व प्रसन्नता के सूचकांकों पर ऊंचाई पर होते हैं।


वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण में आर्थिक वृद्धि को
जॉब से अधिक निकटता से जोड़ने का मौका गंवा दिया।
मसलन, उन्हें एक मोटा अनुमान रखना था कि अगले
पांच वर्षों में बुनियादी ढांचे पर 105 लाख करोड़ रुपए
खर्च करने से कितने जॉब निर्मित होंगे। चूंकि आवास
अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक श्रम आधारित है तो उन्हें
बताना चाहिए था कि '2022 तक सबको आवास' के
लक्ष्य के तहत कितने जॉब पैदा होंगे। 5 लाख करोड़
डॉलर का लक्ष्य हासिल करने में सफलता साहसी सुधार
लागू करने के साथ मानसिकता में बदलाव पर निर्भर
होगी। 1950 के दशक से विरासत में मिला निर्यात को
लेकर निराशावाद अब भी मौजूद है और वैश्विक निर्यात
में भारत का हिस्सा मामूली 1.7 फीसदी बना हुआ है।
निर्यात के बिना कोई देश मध्यवर्गीय नहीं बन सकता। हमें
दुर्भाग्यजनक संरक्षणवाद को खत्म करना चाहिए, जिससे
देश 2014 से ग्रसित है। हमें अपना नारा बदलकर 'मेक
इन इंडिया फॉर द वर्ल्ड' कर लेना चाहिए। केवल निर्यात
के माध्यम से ही हमारे महत्वाकांक्षी युवाओं के लिए ऊंची
नौकरियां व अच्छेदिन आएंगे। दूसरी बात, वृद्धि और
जॉब निजी निवेश के जरिये ही आएंगे। बड़े निवेशकों को
भारत का माहौल प्रतिकूल लगता है। बजट ने इसे और
बढ़ाया है और शेयर बाजार के धराशायी होने का एक
कारण यह भी हो सकता है। तीसरी बात, हालांकि भारत
कृषि उपज का प्रमुख निर्यातक बन गया है पर यह अब भी
अपने किसानों से गरीब देहातियों की तरह व्यवहार करता
है। किसानों को वितरण (एपीएमसी, अत्यावश्यक वस्तु
अधिनियम आदि को खत्म करें), उत्पादन (अनुबंध पर
आधारित खेती को प्रोत्साहन दें), कोल्ड चेन्स (मल्टी
ब्रैंड रिटेल को अनुमति दें) की आज़ादी और एक स्थिर
निर्यात नीति चाहिए। सुधार पर अमल ही काफी नहीं है,
मोदी को उन्हें लोगों के गले भी उतारना होगा। शुरुआत
अपनी पार्टी, आरएसएस और संबंधित भगवा संगठनों
से करें और उसके बाद शेष देश। मार्गरेट थैचर का यह
वक्तव्य प्रसिद्ध है कि वे अपना 20 फीसदी वक्त सुधार
लागू करने में लगाती हैं और 80 फीसदी वक्त उन्हें
स्वीकार्य बनाने में लगाती हैं। नरसिंह राव, वाजपेयी और
मनमोहन सिंह जैसे पूर्ववर्ती सुधारक इसमें नाकाम रहें।
जबर्दस्त जनादेश प्राप्त मोदी को अपनी कुछ राजनीतिक
पूंजी इस पर खर्च करनी चाहिए। अब वक्त आ गया है
कि भारत चुपके से सुधार लाना बंद करे। लोकतंत्र में
जीतने वाले का हनीमून आमतौर पर 100 दिन चलता
है। इकोनॉमी के लक्ष्य के आलोचकों को सर्वोत्तम जवाब
यही होगा कि उक्त अवधि में कुछ नतीजे दिखा दिए
जाएं। मसलन, पहले कार्यकाल से भू व श्रम सुधार बिल
बाहर निकाले, उनमें सुधार लाएं और उन्हें इस लक्ष्य से
स्वीकार्य बनाएं कि इस बार वह राज्यसभा से पारित हो
जाएं। वित्तमंत्री को सार्वजनिक उपक्रमों (एयर इंडिया के
अलावा) की बिक्री की समयबद्ध योजना सामने रखकर
अपने साहसी विनिवेश लक्ष्य पर तेजी से अमल करना
चाहिए। इस तरह के कदमों से जीडीपी लक्ष्य के प्रति
लोगों का भरोसा पैदा होगा। हर तिमाही में राष्ट्र के सामने
प्रगति की रिपोर्ट प्रस्तुत करने से मोदी 2.0 के विज़न में
लोगों का भरोसा और मजबूत होगा।

Thursday, July 18, 2019

Bold vision of Modi 2.0: Moving from ‘garibi hatao’ to ‘amiri lao’ depends on embedding audacious new mindsets

Times of India | July 16, 2019

On Sunday night the anchor of a TV show sneeringly and repeatedly referred to Prime Minister Narendra Modi's $5 trillion GDP target. The show was on the poor state of our cities and the well-meaning anchor didn't mean to demonise economic growth even though it came out sounding that way. When this was pointed out to her, she replied in her defence that India should grow but with responsibility to the environment. No one could disagree with that but the viewer was left unsure about the virtues of growth.

Ever since the $5 trillion goal was announced last week, it has set off a healthy debate with Modi calling his critics "professional pessimists". It is a good thing for a nation to aspire to a target. It also suggests that Modi 2.0 has a new mindset – a happy change from the "garibi hatao" mindset of giveaways that afflicted Modi 1.0 after Rahul Gandhi's jibe about a "suit-boot sarkar", which led to an unhappy race to the bottom during the recent general election. The ambitious target restores the growth mindset that got Modi elected in the first place in 2014.

The pursuit of higher GDP is easy to malign – it was invented during the industrial age and has its limitations. Many blame growth for harming the environment. They want governments to stop chasing money and start caring about the people. But it is also understandable why GDP remains the best guide for policy makers. In recent years growth has lifted more than a billion people around the world out of crushing poverty.

Only through growth does a society create jobs. Only growth provides taxes to the government to spend on education (that brings opportunity and equity) and healthcare (that improves nutrition, decreases child mortality and allows people to live longer.) In India, growth provided the means to bring subsidised gas to rural households to counter indoor air pollution from burning dung and wood for cooking. In 1990, this insidious form of pollution caused more than 8% of all deaths in the world; with growth and prosperity, this figure is down to nearly half today. Even outdoor pollution rises sharply when a poor nation begins to develop but declines as the nation prospers and has the resources to control it. It's not surprising that nations with high per capita GDP enjoy the highest ranks on the indices of human development and happiness.

It was not appropriate in her Budget speech to extoll the virtues of GDP growth, but the finance minister could have explained how achieving her bold target was crucial to creating jobs for the millions who voted for BJP. I would go further and make a new slogan for Modi 2.0, following Deng's example in China – "Not only garibi hatao, but amiri lao." This would capture the hopes and aspirations of the young. Instead of turning defensive about suit-boot, the right answer from a reformist prime minister should be, "Yes, I want every Indian to aspire to the comforts of a suit-boot lifestyle."

Success in achieving the $5 trillion target depends on implementing bold reforms and a change in other mindsets as well. Export pessimism, inherited from the 1950s, still persists and India's share in global exports remains a measly 1.7%. No country became middle class without exports. We must reverse the unfortunate protectionism that has afflicted the nation since 2014 and change our slogan to "Make in India for the World". Only through exports will come the high productivity jobs and acche din for our aspiring youth.

Second, growth and jobs will only come through private investment. Investor sentiment is weak and the biggest investors find India's environment turning hostile. The Budget has exacerbated this and it may be one reason for the stock market crash. Third, although it has become a major exporter of farm produce, India continues to treat its farmers like poor peasants. Farmers need freedom of distribution (scrap APMCs, Essential Commodities Act, etc), production (encourage contract farming), cold chains (liberalise multi-brand retail), and a stable policy on exports. Bleeding subsidies for fertilisers and PDS must be replaced by direct benefit transfers.

It is not enough to implement reforms, Modi needs to sell them. To begin with, sell them to his party, to RSS and allied saffron units. And then to the rest of the country. Margaret Thatcher used to say famously that she spent 20% of her time doing reforms and 80% selling them. The previous reformers – Narasimha Rao, Vajpayee, and Manmohan Singh – failed in this task. With his overwhelming mandate Modi should expend some of his political capital in this task. It is high time India stopped reforming by stealth.

In democracies the winner's honeymoon usually lasts a hundred days. The best answer to critics who are sceptical about the $5 trillion goal is to show tangible results during this period. For example, pull out the land and labour reform bills from the Modi 1.0 closet; improve them, and begin to "sell" these reforms in anticipation of getting them through the Rajya Sabha this time around. The FM on her part should quickly follow up on her bold disinvestment target by announcing a time bound plan for the strategic sale of other public sector companies (apart from Air India). Actions such as these will gain the peoples' trust in the ambitious $5 trillion number. And follow up with quarterly progress reports to the nation to reinforce confidence in Modi 2.0's bold vision.

Wednesday, July 10, 2019

हमें चाहिए असरदार राज और ताकतवर समाज

दैनिक भास्कर | जून 14, 2019

नरेन्द्र मोदी के फिर चुने जाने के बाद धीरे-धीरेबढ़ती तानाशाही का भय फिर जताया जारहा है लेकिन, मुझे उलटी ही चिंता है। मुझे शक्तिशालीसे नहीं बल्कि कमजोर व बेअसर राज्य-व्यवस्था(राज) से डर लगता है। कमजोर राज्य-व्यवस्था मेंकमजोर संस्थान होते हैं, खासतौर पर कानून का कमजोरराज होता है, जिसे न्याय देने में दर्जनों साल लग जातेहैं और अदालतों में 3.3 करोड़ प्रकरण निलंबित रहतेहैं। यह कमजोरों को शक्तिशाली के खिलाफ संरक्षणनहीं देती और विधायिका के हर तीन में से एक सदस्यके आपराधिक रिकॉर्ड को बर्दाश्त कर लेती है। कमजोरराज्य-व्यवस्था लोगों के मन में निश्चिंतता के बजायअनिश्चितता पैदा करती है और पुलिसकर्मियों, मंत्रियोंऔर जजों को खरीदे जाने की अनदेखी करती है। यहकार्यपालिका को तेजी से कार्रवाई करने से रोकती है औरसुधारों को घोंघे की रफ्तार से लागू करती है।

मोदी ने पिछले पांच वर्षों में यह सबक लिया होगाकि भारतीय प्रधानमंत्री की शक्ति की सीमा है। उदारवादीलोकतांत्रिक राज्य-व्यवस्था तीन स्तंभों पर आधारित होतीहै-प्रभावी कार्यपालिका, कानून का राज और जवाबदेही।हम तीसरे स्तंभ की बहुत चर्चा करते हैं, जबकि असलीमुद्दा पहले का है। चूंकि देश हमेशा चुनावी मोड में रहताहै तो इसकी समस्या जवाबदेही की नहीं है। समस्या राज्यव्यवस्था के काम करवाने की योग्यता की है। भारतीयप्रधानमंत्री इसलिए भी कमजोर है, क्योंकि असली शक्तितो राज्यों के मुख्यमंत्रियों में निहित है, जो भारत केअसली शासक हैं। विडंबना है कि मुख्यमंत्री के रूप मेंनरेन्द्र मोदी के प्रदर्शन के कारण उन्हें 2014 में चुना गयाथा और हमने मान लिया था कि वे प्रधानमंत्री बनने केबाद वही जादू दिखाएंगे लेकिन, ऐसा हुआ नहीं।

2014 में नरेन्द्र मोदी ने लोगों से कहा कि वे उन्हेंभारत को पूरी तरह बदलने के लिए दस साल दें। यहमौका उन्हें मिल गया है। वह बदलाव आर्थिक सुधारों सेनहीं, बल्कि शासन संबंधी सुधारों से शुरू होना चाहिए।मोदी ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर से प्रेरणा लेसकते हैं। उन्होंने शासन संबंधी कठिन सुधारों को दूसरेकार्यकाल के लिए रखा। भारत में राज्य-व्यवस्था कीक्षमता बढ़ाना आसान नहीं है, क्योंकि चीन के विपरीतभारत ऐतिहासिक रूप से एक कमजोर राज्य-व्यवस्थावाला देश रहा है। हमारा इतिहास स्वतंत्र राज्यों का है,जबकि चीन का इतिहास एकल साम्राज्यों का है। भारतके चार साम्राज्य -मौर्य, गुप्त, मुगल और ब्रिटिश- चीनके सबसे कमजोर साम्राज्य से भी कमजोर थे।

हमारी पहली वफादारी समाज के प्रति है- हमारापरिवार, हमारी जाति, हमारा गांव। चाहे राज्य-व्यवस्थाज्यादातर कमजोर रही पर भारत में हमेशा शक्तिशालीसमाज रहा है। इसलिए दमन शासन ने नहीं किया, यहसमाज की ओर से हुआ मसलन जैसा ब्राह्मणों ने कियाऔर हमें दमन से बचाने के लिए बुद्ध जैसे संन्यासी औरसंतों की एक सतत धारा की जरूरत पड़ी। चूंकि सत्ताऐतिहासिक रूप से बिखरी हुई थी तो भारत 70 सालपहले संघीय लोकतंत्र और चीन केवल तानाशाही राष्ट्रही बन सकता था। इतिहास से मिला सबक है कि हमेंमजबूत राज्य-व्यवस्था चाहिए और राज्य-व्यवस्था कोजवाबदेह बनाने के लिए ताकवर समाज चाहिए।

विडंबना है कि आज चीन की सरकार भारत कीसरकार से ज्यादा लोकप्रिय है, क्योंकि इसने असाधारणप्रदर्शन किया है। न सिर्फ इसने गरीबी मिटा दी है, देश कोमध्यवर्गीय बना दिया बल्कि यह लगातार दिन-प्रतिदिनके शासन में सुधार करती जा रही है। कुल-मिलाकरचीन ने आम आदमी को बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य दियाऔर उनका कल्याण किया। तानाशाही व्यवस्था इसकीसफलता का रहस्य नहीं है बल्कि रहस्य यह है कि इसनेराज्य की क्षमता पर फोकस रखा। जहां चुनावों ने भारतीयलोगों को अधिक स्वतंत्रता दी है (और यह बहुत बड़ीउपलब्धि है), चीन की सरकार ने बेहतर शासन के जरियेदिन-प्रतिदिन की निश्चिंत ज़िंदगी दी है। कहने का मतलबयह नहीं कि भारतीयों को अपनी व्यवस्था चीनियों सेबदल लेनी चाहिए (उन्हें भी ऐसा नहीं करना चाहिए)।किंतु यदि आप भारतीय व चीनी आम आदमी की जगहखुद को रखकर देखें तो आपको भारतीय लोकतंत्र द्वाराचुनी गई ज्यादातर सरकारों से हताशा होगी।

चीन ने अपनी नौकरशाही को ज्यादा प्रेरित व प्रभावीबनाकर शासन की क्षमता बढ़ाई। इसका मतलब हैअधिकारियों के प्रदर्शन पर निकट से निगाह रखना औरउन्हें पुरस्कृत करना है। चीनी नौकरशाही में पदोन्नतिवरिष्ठता से नहीं बल्कि नागरिकों को बेहतर सेवाएं देनेके आधार पर होती है। इससे चीनी नौकरशाह, नियमों सेबंधे भारतीय अधिकारियों के विपरीत अधिक व्यावहारिकरवैया अपनाने को प्रेरित होते हैं। भारतीय नौकरशाहीदशकों से पीड़ित रही है, क्योंकि किसी राजनेता में उनअत्यंत जरूरी सुधार लागू करने का कौशल नहीं था,जिस पर पचास साल पहले सहमति बनी थी। कर वसूलीका एक ईमानदार और पारदर्शी तंत्र, अधिक कर वसूलकर सकेगा। यही बात राज्य-व्यवस्था के तीन अंगों –न्यायपालिका, पुलिस व संसद में सुधारों पर लागू होती है।

क्या नरेन्द्र मोदी ऐसे प्रभावी नेता साबित होंगे, जोनिहित स्वार्थी तत्वों का सामना करके राज्य-व्यवस्था कीक्षमता बढ़ाने का साहस दिखाएंगे? उन्हें गुजरात व केंद्रदोनों स्तरों पर काफी अनुभव प्राप्त है। वे निहित स्वार्थीतत्वों से टकराने के जोखिम भी जानते हैं। शुरुआत स्पष्टदिखते आसान सुधारों से हो सकती है। यानी पहले तोमौजूदा कानून लागू करें, फिर नए कानून बनाएं। नीति कारिश्ता 'क्या' से नहीं बल्कि 'कैसे' से होता है। हर कोईजानता है कि 'क्या' किया जाना चाहिए पर सवाल तो यहहै कि इसे 'कैसे' किया जाए। भारत में बहुत सारे 'कानून'हैं पर चीन में 'व्यवस्था' है। आप को दोनों की जरूरतहै- 'कानून और व्यवस्था' (लॉ एंड ऑर्डर)।

हालांकि, केंद्रीयकृत शासन भारत के लिए ठीकनहीं है पर भारत का प्रधानमंत्री इतना मजबूत होताहै कि वह केंद्र व राज्य, दोनों स्तरों पर शासन कीक्षमता बढ़ा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी को लोगों काजबर्दस्त समर्थन मिला है, जो शासन में सुधार के लिएसुनहरा मौका है। सरकारी संस्थानों में सुधार, आर्थिकसुधारों से कहीं अधिक कठिन होगा लेकिन, फिर उसकेफायदे भी कहीं ज्यादा होंगे। यदि मोदी सफल होते हैं तोइतिहास में उन्हें न सिर्फ महान नेता के रूप में बल्किइस बात के लिए भी जाना जाएगा कि उन्होंने 'न्यूनतमसरकार,अधिकतम शासन' का अपना वादा पूरा किया।