Tuesday, May 26, 2015

साहसी फैसले न होने से निराशा

राजनीति थोड़े वक्त का खेल होता है, जबकि अर्थव्यवस्था लंबे समय का। दोनों आखिर में मिलते हैं, लेकिन बीच के समय में वे विपरीत दिशाओं में जाते लगते हैं। इस विरोधाभास के कारण ज्यादातर लोगों का निराश होना अपरिहार्य है। अपनी सरकार की पहली वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यही समस्या है। अच्छे रेकॉर्ड के बावजूद वे अपने समर्थकों की असाधारण रूप से ऊंची अपेक्षाओं को मैनेज करने में नाकाम रहे। मुख्य प्राथमिकताओं पर निगाह न रख पानेे से योजनाएं अमल में लाने की उनकी योग्यता संदेह के घेरे में आ गई। संघ परिवार लगातार सरकार के लिए शर्मनाक स्थिति पैदा करता रहा है। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह रहा कि वे साहसी सुधारक की बजाय व्यावहारिक व धीरे-धीरे सुधार लाने वाले प्रधानमंत्री बन गए। दक्षिणपंथ से राजनीतिक मध्य में आकर उन्होंने अपने ज्यादातर मतदातावर्ग को नाराज कर दिया है।

अर्थव्यवस्था एक वर्ष पहले की तुलना में बेहतर है, हालांकि यह इसकी असली क्षमता के आस-पास भी नहीं पहुंच सकी है। जीडीपी वृद्धि दर ने रुख बदल लिया है। भारत अगले साल तक चीन को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था बन जाएगा। मुद्रास्फीति 18 माह की तुलना में आधी रह गई है। पिछले सालभर रुपया सबसे स्थिर मुद्राओं में से एक रहा है। सरकार की वित्तीय सेहत अच्छी है। वित्तीय व चालू खाता, दोनों काबू में हैं- और बाहर से पूंजी का आना 91-92 के बाद सबसे अधिक है। बीमा तथा रक्षा क्षेत्र का उदारीकरण और डीजल को नियंत्रण मुक्त कर दिया गया है। कोयले का उत्पादन तो 8.3 फीसदी बढ़ा है, 23 साल में सर्वाधिक, जिससे कई पावर प्लांट फिर शुरू हो गए हैं। परियोजनाओं को मंजूरी देने में अनिर्णय की स्थिति खत्म हो गई है। आम और रेलवे बजट निवेश बढ़ाने वाले थे। पिछले 12 महीने में कोई घोटाला सामने नहीं आया है और देश में घोटालों का युग खत्म होने की हल्की-सी उम्मीद बंधी है। कोयले और स्पेक्ट्रम की नीलामी पारदर्शी रही। आवेदन और मंजूरी ऑनलाइन होने से घूसखोरी की गुंजाइश नहीं रही। और मोदी की व्यक्तिगत कूटनीति के कारण दुनिया में देश का रुतबा बढ़ा है। नेपाल- यमन में सक्रियता ताजे उदाहरण हैं।

इस ठोस रेकॉर्ड के बाद भी लोगों में असंतोष क्यों खदबदा रहा है? जब आप आर्थिक गिरावट से उबर रहे होते हैं तो नौकरियां लाने में वक्त तो लगता है। बाजार में मांग अब भी कमजोर है। कंपनियों के नतीजे अच्छे नहीं हैं। अर्थव्यवस्था के विस्तार का कोई कारण नहीं है और इसीलिए नौकरियों का परिदृश्य धूमिल है। खेती के लिए यह बुरा साल था और कमजोर मंत्री होने से स्थिति सुधारने में मदद नहीं मिली। निर्माण के क्षेत्र में धीरे-धीरे ही रोजगार लौटेगा, क्योंकि पिछली सरकार ने मंजूरी देने में जो अनिर्णय दिखाया उससे ढांचागत निर्माण में लगी कंपनियां चौपट हो गई थीं।

पिछली सरकार की निर्णयहीनता से तंग आकर तथा नरेंद्र मोदी का क्रियान्वयन कौशल देखकर लोगों ने उन्हें चुना। अब तक तो उन्होंने इसके पर्याप्त उदाहरण नहीं दिए हैं। हां, जनधन योजना अमल में लाने के स्तर पर सफल रही है। साल भर पहले तो किसी को कल्पना नहीं थी कि हर भारतीय परिवार कभी बैंक खाता होने की उम्मीद कर सकता है। अब आधार और मोबाइल फोन के माध्यम से गरीबों तक फायदे पहुंचाने के मामले में ऐतिहासिक बदलाव की पृष्ठभूमि तैयार हो गई है। इसके अलावा बैंक खातों से जुड़ी तीन योजनाएं शुरू की गई हैं। कम लागत पर दुर्घटना बीमा, जीवन-बीमा और वरिष्ठ नागरिकों के लिए पेंशन योजना। तीनों के प्रीमियम बहुत ही कम हैं। हालांकि, अमल में लाने के मामले में जन-धन योजना जैसे उदाहरण कुछ ही हैं। यदि ‘बिज़नेस करने में आसानी’ पर मोदी ने ध्यान केंद्रित किया होता तो अब तक कई सरकारी प्रक्रियागत अड़चनें दूर हो गई होतीं। अच्छे नेता क्रियान्वयन के ब्योरों में जाते हैं और यदि उन्होंने यह किया होता तो भाजपा शासित राज्यों में मीलों लंबा लालफीता कट चुका होता और ये राज्य ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी और निवेश लायक हो चुके होते। इसी तरह यदि उनके पास नगर निगमों के साथ मिलकर काम करने वाली मजबूत क्रियान्वयन टीम होती तो स्वच्छ भारत अभियान अब तक दूसरों के लिए सफलता का मॉडल बन चुका होता।

शायद, ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ देने में सबसे बड़ी नाकामी कर विभाग के कारण है। जहां मोदी निवेशकों को आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं और वित्त मंत्री अरुण जेटली बिज़नेस अनुकूल माहौल बनाने का वादा कर रहे हैं, यह बात चौंकाने वाली है कि कर विभाग अब भी पिछली तारीख से वसूली में लगा है। विदेशी संस्थागत निवेशक ताजा मांग से इतने ख़फा हुए कि उन्होंने भारतीय शेयर बेचना शुरू कर दिए और शेयर बाजार धराशायी होने लगा। भारतीय करदाता के लिए भी जमीनी हकीकत यही है कि निर्दोष और ईमानदार करदाताओं को कर अधिकारियों की ओर से परेशान किया जाना जारी है। यही वजह है कि लोगों के दिमाग में परंपरागत नौकरशाही की छवि बनी हुई है।

राजनीति के मध्यमार्ग पर आकर मोदी ने लगता है हर किसी को नाराज कर दिया है। बिज़नेसमैन को लगता नहीं है कि वे वैसे व्यवसाय हितैषी रह गए हैं, जैसे वे गुजरात में थे। आर्थिक दक्षिणपंथी और महत्वाकांक्षी युवा पीढ़ी निराश हैं, क्योंकि वे ज्यादा साहसी सुधार लागू करके तेजी से नौकरियां नहीं लौटा पाए हैं। धर्मनिरेपेक्षवादी नाराज हैं कि वे अल्पसंख्यकों के प्रति दुर्भाग्यपूर्ण बयानबाजी रोकने के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाए हैं। संघ परिवार के उनके अपने समर्थक और सांस्कृतिक दक्षिणपंथी नाराज हैं कि उनका भगवा रंग धुंधला पड़ा है और ईसाई व मुस्लिम समुदाय के प्रति वे नरम रुख दिखा रहे हैं। विदेशी निवेशक तो ‘कर आतंकवाद’ से नाराज हैं ही। वामपंथियों को चिंता है कि गरीबों के हितैषी बनकर वे कहीं उनका मतदातावर्ग न झपट लें।

किंतु नरेंद्र मोदी की नज़र अगले आम चुनाव पर है। वे जानते हैं कि वोट तो राजनीतिक मध्यमार्ग पर चलने से ही मिलेंगे। मौजूदा अंसतोष तो खत्म हो जाएगा, क्योंकि अंतत: राजनीति व अर्थनीति का मिलन होना ही है। यद्यपि उनके सारे समर्थक आज उनसे नाराज हैं, मोदी व्यावहारिकता के मध्यमार्ग पर चलने की फसल चार साल बाद काटेंगे और 2019 के चुनाव जीतेंगे। कुल-मिलाकर प्रधानमंत्री ने वोटर के चुनाव को सही साबित किया है। राहुल गांधी या अरविंद केजरीवाल की तुलना में उन्होंने कहीं बेहतर प्रदर्शन किया है। मई 2014 में यही दो अन्य विकल्प भारतीय मतदाता के सामने थे। उनकी सरकार के पास काफी उपलब्धियां हैं, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वे और भी बेहतर कर सकते थे यदि वे अपनी प्रमुख आर्थिक प्राथमिकताओं पर फोकस रखते और क्रियान्वयन पर कड़ी नज़र रखते।

Saturday, May 23, 2015

बेहतरी के बीच बेचैनी

राजनीति अल्पअवधि की चीज है, जबकि अर्थशास्त्र दीर्घकालिक। दोनों का झुकाव एक ही लक्ष्य की तरफ होता है, लेकिन तात्कालिक तौर पर दोनों विपरीत दिशा में काम करते हैं। इस बेमेल स्वभाव के कारण अधिकांश लोग निराश होते हैं।

अपनी सरकार की प्रथम वर्षगांठ पर यही बात प्रधानमंत्री मोदी के लिए समस्या भी है। हालांकि मोदी का रिकॉर्ड अच्छा है, लेकिन वह अपने समर्थकों की असाधारण अपेक्षाओं को नियंत्रित कर पाने में असफल रहे हैं। कुछ मुख्य प्राथमिकताओं को पूरा न कर पाने के कारण उनकी क्रियान्वयन क्षमता पर भी सवाल खड़े हुए हैं। संघ परिवार लगातार सरकार के समक्ष अड़चनें पैदा करता रहा है, लेकिन एक बड़े आश्चर्य की बात यही है कि मोदी अब व्यावहारिक हो चुके हैं और तीव्र व साहसिक सुधारों के बजाय क्रमिक आधुनिककर्ता के रूप में दिख रहे हैं। राजनीतिक मध्य मार्ग के प्रति झुकाव के कारण उन्होंने अपने अधिकांश समर्थक समूहों को नाखुश किया है।

एक वर्ष पहले की अपेक्षा अर्थव्यवस्था बेहतर हालत में है, लेकिन अभी भी यह अपनी वास्तविक क्षमता से दूर है। जीडीपी विकास में उल्लेखनीय प्रगति हुई है और अगले वर्ष तक भारत चीन को पछाड़कर दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन जाएगा। महंगाई 18 महीने पहले की तुलना में इस समय आधी है। पिछले एक वर्ष से रुपया सर्वाधिक स्थिर मुद्रा है।

सरकारी वित्त की स्थिति बेहतर है। राजकोषीय और चालू खाते का घाटा नियंत्रण में है और 1991-92 की तुलना में पूंजी का प्रवाह सर्वाधिक है। बीमा और रक्षा क्षेत्र को अपेक्षाकृत उदार किया गया है और डीजल को विनियंत्रित कर दिया गया है। कोयला उत्पादन 8.3 फीसद बढ़ा है, जो पिछले 23 वर्षो में सर्वाधिक है। इससे कई बिजली संयत्रों को फिर से शुरू किया जा सका है। परियोजनाओं की स्वीकृति में व्याप्त अपंगता खत्म हुई है। आम बजट और रेलवे बजट, दोनों ही नए सिरे से निवेश उन्मुख हैं। पिछले 12 महीनों में घोटाले की एक भी घटना नहीं हुई है।

इससे उम्मीद जगी है कि भारत में बड़े घोटालों का समय खत्म हो गया है। पारदर्शी तरीके से कोयले और स्पेक्ट्रम की नीलामी हुई। ऑनलाइन आवेदन और स्वीकृतियां दी जा रही है, जिससे रिश्वतखोरी की संभावना कम होती है। आज दुनिया में भारत की साख और स्थिति बेहतर हुई है। व्यक्तिगत कूटनीति के लिए मोदी को धन्यवाद दिया जाना चाहिए। नेपाल और यमन में चलाए गए आपदा अभियान राहतकारी रहे हैं। इस ठोस रिकॉर्ड को देखते हुए आखिर कुछ लोग असहज क्यों हैं?

जब आप खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के दौर से वापस निकलते हैं तो स्थिति को सुधारने में समय लगता है। उपभोक्ता मांग अभी भी कमजोर है, कंपनियों के परिणाम ज्यादा अच्छे नहीं हैं, जिस कारण रोजगार सृजन भी कमजोर है। कृषि के लिए यह एक खराब वर्ष रहा और एक कमजोर मंत्री मददगार साबित नहीं हुआ। विनिर्माण क्षेत्र में नौकरियों की गति धीमी रही, क्योंकि पिछली सरकार ने परियोजनाओं की स्वीकृति में देरी की, जिसके चलते इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनियों की बैलेंस शीट खराब हो गई। इन कंपनियों को बड़ी मात्र में बैंकों को पैसे का भुगतान करना पड़ा जिससे वे दिवालिया हो गईं।

अपने पिछले बजट में सरकार ने कंपनियों की वित्तीय स्थिति में सुधार होने तक इन्फ्रास्ट्रक्चर में सीधे खर्च करने की बात कही थी। ऐसा होने के बावजूद रोजगार सृजन वापस पटरी पर लौटने में समय लगेगा। पिछली सरकार की नीतिगत अपंगता के चलते मतदाताओं ने मोदी की क्रियान्वयन क्षमता को देखते हुए उनका चुनाव किया था। हालांकि वह अभी इस दिशा में अपनी स्पष्ट छाप नहीं छोड़ सके हैं। हां, यह अवश्य है कि जनधन योजना बेहद सफल रही।

एक वर्ष पूर्व कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि प्रत्येक भारतीय परिवार के पास एक बैंक खाता हो सकता है। आधार कार्ड और मोबाइल फोन की वजह से अब गरीबों को सीधे नकदी हस्तांतरण हो सकेगा। यह एक ऐतिहासिक बदलाव है। इससे सब्सिडी में धांधली को रोका जा सकेगा। जनधन बैंक खाते से जुड़ी तीन योजनाओं को घोषित किया गया है जिनमें से एक बहुत कम कीमत पर दुर्घटना बीमा की सुविधा है, दूसरी जीवन बीमा है और तीसरी वरिष्ठ नागरिकों के लिए पेंशन योजना है। इनके लिए बहुत कम वार्षिक प्रीमियम देना होगा। महज 12 रुपये में दो लाख की दुर्घटना बीमा योजना, 60 वर्ष की आयु पूरी होने पर पेंशन सुविधा का लाभ मिलेगा और 330 रुपये के वार्षिक प्रीमियम पर दो लाख रुपये की जीवन बीमा योजना सुविधा दी जाएगी।

यदि मोदी व्यापार में सहूलियत वाला माहौल बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं तो उन्हें नौकरशाही की तमाम अनावश्यक प्रक्रियाओं को खत्म करना होगा। लालफीताशाही को खत्म करने की दिशा में भाजपा शासित राज्यों को पहल करनी होगी और अधिक प्रतिस्पर्धी तथा निवेश उन्मुख होना होगा। इसी तरह स्वच्छता अभियान की दिशा में भी उन्हें दूसरों को प्रेरित करना होगा कि किस तरह नगर-कस्बों की सफाई की जाए। संभवत: मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेस में सबसे बड़ी विफलता टैक्स विभाग है।

जहां मोदी निवेशकों को प्रेरित-प्रोत्साहित कर रहे हैं, वित्तमंत्री अरुण जेटली पूर्वानुमान योग्य और गैर प्रतिकूल माहौल निर्मित करने की बात रहे हैं वहीं यह आश्चर्यजनक है कि कर विभाग रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स (पिछली तिथि से कर लागू करना) को लेकर अभी भी अडिग है। इससे विदेशी संस्थागत निवेशक अत्यधिक नाराज हैं और उन्होंने भारतीय शेयरों को बेचना शुरू कर दिया है, जिससे शेयर बाजार में तेज गिरावट की स्थिति बनी है। भारतीय करदाता भी परेशान हैं, क्योंकि निदरेष तथा ईमानदार करदाताओं को भी कर अधिकारी लगातार परेशान कर रहे हैं।

इससे भारतीय नौकरशाही के रवैये में कोई बदलाव नहीं होने की धारणा लोगों के मन-मस्तिष्क में बनी हुई है। 1व्यावसायियों का भी यह विश्वास टूटा है कि एक गुजराती होने के कारण वह व्यावसायिक माहौल के लिए प्रतिबद्ध हैं। आर्थिक समूहों के साथ आकांक्षी युवा भी साहसिक तरीके से बाजार सुधारों की दिशा में नहीं बढ़ने से निराश हैं, क्योंकि वह तेजी से रोजगार सृजन चाहते हैं। सेक्युलरवादी नाखुश हैं कि उन्होंने अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंदूवादी बयान देने वालों को रोकने के लिए कुछ विशेष नहीं किया। उनके अपने समर्थक और संघ परिवार नाखुश हैं कि वह ईसाइयों और मुस्लिमों के प्रति अधिक नरम हैं।

मोदी की नजर आगामी चुनावों पर है। वह जानते हैं कि वर्तमान असंतोष गुजर जाएगा, क्योंकि राजनीति और अर्थशास्त्र अंत में मिल जाते हैं। कुल मिलाकर प्रधानमंत्री मोदी ने राहुल गांधी अथवा केजरीवाल से बेहतर प्रदर्शन किया है, जो मई 2014 में भारतीय मतदाताओं के समक्ष दो अन्य विकल्प थे। साख की दृष्टि से उनकी सरकार ने बेहतर सफलता हासिल की है, लेकिन निश्चित रूप से यदि वह मुख्य आर्थिक प्राथमिकताओं पर केंद्रित रहते तो और अधिक बेहतर कर सकते थे।

Sunday, May 17, 2015

One-year itch: Modi shift to political centre angers both right and left

Politics is a short game while economics is a long one. Both tend to converge in the end but in the interim they pull in opposite directions. Because of this mismatch, most of the people are invariably disappointed. This is Prime Minister Modi’s problem on the first anniversary of his government. Although his record is reasonably good, he has neither met the extraordinary expectations of his supporters nor followed through on key priorities. Surprisingly, he has turned out to be a pragmatic gradualist — by shifting towards the political centre, he has left all his constituencies unsatisfied.

The economy is in far better shape than a year ago, although nowhere near its full potential. GDP growth has turned around and India is set to surpass China next year to become the world’s fastest growing major economy. Inflation is down. Government finances are healthy — both fiscal and current account deficits are under control — and capital inflows have been the highest since ’91-92. Insurance and defence sectors have been liberalized and diesel decontrolled. Coal production has grown 8.3%, the highest in 23 years, allowing many power plants to restart. The paralysis afflicting project approvals is over. Both the general and railway budgets were refreshingly investment oriented.

There has been no corruption scandal in the past 12 months, raising the hope that the age of grand larceny may be over. Auctions for coal and spectrum were transparent. Applications and approvals are moving online where there is less scope for bribery. In addition, India’s standing in the world has improved thanks to Modi’s personal diplomacy, and recent actions to alleviate distress in Nepal and Yemen have reinforced this new stature.

Given this fair record, why is discontent brewing? When you are coming out of such a low economic ditch, it takes time for jobs to come back. When consumer demand is still weak, company results are poor; the producer is shy of investing and jobs prospects are bleak. It’s also been a bad year for agriculture and a weak minister hasn’t helped. Construction jobs are slow to come back because balance sheets of infrastructure companies were destroyed by approval paralysis of the past government.

Frustrated by that paralysis, voters brought in Modi because of his ability to act. But he has not given enough evidence of his execution skills. Yes, the Jan Dhan Yojana is a success. A year ago, no one imagined that every Indian family could aspire to a bank account. This is precisely what is happening. The stage is now set for a historic change in benefits delivery to the poor via cash transfers through Aadhar identity and mobile phones, which will cut subsidy fraud dramatically.

There are not enough implementation successes, however. Good leaders get into the messy details of execution. If Modi had focused on executing his ‘ease of doing business’ project, more bureaucratic processes would have been eliminated by now and the BJP-ruled states at least would have cut miles of red tape and become more competitive. Similarly, stronger implementation with municipalities by the Swachch Bharat Mission could have created some real models of success by now about how to clean up a town.

Perhaps, the biggest failure in the delivery of ‘minimum government, maximum governance’ is the tax department. While Modi has been wooing investors and FM Jaitley promising to create a predictable, non-adversarial environment, the tax department shockingly persists with unfair retrospective demands. The reality on the ground is that the innocent taxpayer continues to be harassed by tax officials. Hence, the image of an unreformed bureaucracy persists.

By moving towards the political centre, Modi seems to have displeased everyone. Businessmen think he is no longer as pro-business as he was in Gujarat. The cultural right is upset that he has turned out to be less sectarian, and even soft on Christians and Muslims. The economic right is disappointed that he has not implemented market reforms more boldly. His enemies on the left find that he has turned pro-poor, and stolen their fire. But with his eyes on 2019, he knows in his heart that votes reside in the political centre and he will win in the long run. The present discontent will also pass because politics and economics will converge in the end.